कंकाल – जयशंकर प्रसाद

कंकाल – जयशंकर प्रसाद – 1

वह दरिद्रता और अभाव के गार्हस्थ्य जीवन की कटुता में दुलारा गया था। उसकी माँ चाहती थी कि वह अपने हाथ से दो रोटी कमा लेने के योग्य बन जाए, इसलिए वह बार-बार झिड़की सुनता। जब क्रोध से उसके आँसू निकलते और जब उन्हें अधरों से पोंछ लेना चाहिए था, तब भी वे रूखे कपोलों पर आप ही आप सूखकर एक मिलन-चिह्न छोड़ जाते थे।

कभी वह पढ़ने के लिए पिटता, कभी काम सीखने के लिए डाँटा जाता; यही थी उसकी दिनचर्या। फिर वह चिड़चिड़े स्वभाव का क्यों न हो जाता। वह क्रोधी था, तो भी उसके मन में स्नेह था। प्रेम था और था नैसर्गिक आनन्द-शैशव का उल्लास; रो लेने पर भी जी खोलकर हँस लेता; पढ़ने पर खेलने लगता। बस्ता खुलने के लिए सदैव प्रस्तुत रहता, पुस्तकें गिरने के लिए निकल पड़ती थीं। टोपी असावधानी से टढ़ी और कुरते का बटन खुला हुआ। आँखों में सूखते हुए आँसू और अधर पर मुस्कराहट।

उसकी गाड़ी चल रही थी। वह एक पहिया ढुलका रहा था। उसे चलाकर उल्लास से बोल उठा, ‘हटो सामने से, गाड़ी जाती है।’

सामने से आती हुई पगली ने उस गाड़ी को उठा लिया। बालक के निर्दोष विनोद में बाधा पड़ी। वह सहमकर उस पगली की ओर देखने लगा। निष्फल क्रोध का परिणाम होता है रो देना। बालक रोने लगा। म्युनिसिपल स्कूल भी पास न था, जिसकी ‘अ’ कक्षा में वह पढ़ता था। कोई सहायक न पहुँच सका। पगली ने उसे रोते देखा। वह जैसे अपनी भूल समझ गयी। बोली, ‘आँ’ अमको न खेलाओगे; आँ-आँ मैं भी रोने लगूँगी, आँ-आँ आँ!’ बालक हँस पड़ा, वह उसे गोद में झिंझोड़ने लगी। अबकी वह फिर घबराया। उसने रोने के लिए मुँह बनाया ही था कि पगली ने उसे गोद से उतार दिया और बड़बड़ाने लगी, ‘राम, कृष्ण और बुद्ध सभी तो पृथ्वी पर लोटते थे। मैं खोजती थी आकाश में! ईसा की जननी से पूछती थी। इतना खोजने की क्या आवश्यकता कहीं तो नहीं, वह देखो कितनी चिनगारी निकल रही है। सब एक-एक प्राणी हैं, चमकना, फिर लोप हो जाना! किसी के बुझने में रोना है और किसी के जल उठने में हँसी। हा-हा-हा-हा।…’

तब तो बालक और भी डरा। वह त्रस्त था, उसे भी शंका होने लगी कि यह पगली तो नहीं है। वह हतबुद्धि-सा इधर-उधर देख रहा था। दौड़कर भाग जाने का साहस भी न था। अभी तक उसकी गाड़ी पगली लिए थी। दूर से स्त्री और पुरुष, यह घटना कुतूहल से देखते चले आ रहे थे। उन्होंने बालक को विपत्ति में पड़ा देखकर सहायता करने की इच्छा की। पास आकर पुरुष ने कहा, ‘क्यों जी, तुम पागल तो नहीं हो। क्यों इस लड़के को तंग कर रही हो

‘तंग कर रही हूँ। पूजा कर रही हूँ पूजा। राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा की सरलता की पूजा कर रही हूँ। इन्हें रुला देने से इनकी एक कसरत हो जाती है, फिर हँसा दूँगी। और तुम तो कभी भी जी खोलकर न हँस सकोगे, न रो सकोगे।’

बालक को कुछ साहस हो चला था। वह अपना सहायक देखकर बोल उठा, ‘मेरी गाड़ी छीन ली है।’ पगली ने पुचकारते हुए कहा, ‘चित्र लोगे देखो, पश्चिम में संध्या कैसा अपना रंगीन चित्र फैलाए बैठी है।’ पगली के साथ ही और उन तीनों ने भी देखा। पुरुष ने कहा, ‘मुझसे बात करो, उस बालक को जाने दो।’ पगली हँस पड़ी। वह बोली, ‘तुमसे बात! बातों का कहाँ अवकाश! चालबाजियों से कहाँ अवसर! ऊँह, देखो उधर काले पत्थरों की एक पहाड़ी; उसके बाद एक लहराती हुई झील, फिर नांरगी रंग की एक जलती हुई पहाड़ी-जैसे उसकी ज्वाला ठंडी नहीं होती। फिर एक सुनहला मैदान!-वहाँ चलोगे

उधर देखने में सब विवाद बन्द हो गया, बालक भी चुप था। उस स्त्री और पुरुष ने भी निसर्ग-स्मरणीय दृश्य देखा। पगली संकेत करने वाला हाथ फैलाये अभी तक वैसे ही खड़ी थी। पुरुष ने देखा, उसका सुन्दर शरीर कृश हो गया था और बड़ी-बड़ी आँखें क्षुधा से व्याकुल थीं। जाने कब से अनाहार का कष्ट उठा रही थी। साथ वाली स्त्री से पुरुष ने कहा, ‘किशोरी! इसे कुछ खिलाओ!’ किशोरी उस बालक को देख रही थी, अब श्रीचन्द्र का ध्यान भी उसकी ओर गया। वह बालक उस पगली की उन्मत्त क्रीड़ा से रक्षा पाने की आशा में विश्वासपूर्ण नेत्रों से इन्हीं दोनों की ओर देख रहा था। श्रीचन्द्र ने उसे गोद में उठाते हुए कहा, ‘चलो, तुम्हें गाड़ी दिला दूँ।’

किशोरी ने पगली से कहा, ‘तुम्हें भूख लगी है, कुछ खाओगी?’

पगली और बालक दोनों ही उनके प्रस्तावों पर सहमत थे; पर बोले नहीं। इतने में श्रीचन्द्र का पण्डा आ गया और बोला, ‘बाबूजी, आप कब से यहाँ फँसे हैं। यह तो चाची का पालित पुत्र है, क्यो रे मोहन! तू अभी से स्कूल जाने लगा है चल, तुझे घर पहुँचा दूँ?’ वह श्रीचन्द्र की गोद से उसे लेने लगा; परन्तु मोहन वहाँ से उतरना नहीं चाहता था।

‘मैं तुझको कब से खोज रही हूँ, तू बड़ा दुष्ट है रे!’ कहती हुई चाची ने आकर उसे अपनी गोद में ले लिया। सहसा पगली हँसती हुई भाग चली। वह कह रही थी, ‘वह देखो, प्रकाश भागा जाता है अन्धकार…!’ कहकर पगली वेग से दौड़ने लगी थी। कंकड़, पत्थर और गड्ढों का ध्यान नहीं। अभी थोड़ी दूर वह न जा सकी थी कि उसे ठोकर लगी, वह गिर पड़ी। गहरी चोट लगने से वह मूर्च्छित-सी हो गयी।

यह दल उसके पास पहुँचा। श्रीचन्द्र ने पण्डाजी से कहा, ‘इसकी सेवा होनी चाहिए, बेचारी दुखिया है।’ पण्डाजी अपने धनी यजमान की प्रत्येक आज्ञा पूरी करने के लिए प्रस्तुत थे। उन्होने कहा, ‘चाची का घर तो पास ही है, वहाँ उसे उठा ले चलता हूँ। चाची ने मोहन और श्रीचन्द्र के व्यवहार को देखा था, उसे अनेक आशा थी। उसने कहा, ‘हाँ, हाँ, बेचारी को बड़ी चोट लगी है, उतर तो मोहन!’ मोहन को उतारकर वह पण्डाजी की सहायता से पगली को अपने पास के घर में ले चली। मोहन रोने लगा। श्रीचन्द्र ने कहा, ‘ओहो, तुम बड़े रोने हो। जी गाड़ी लेने न चलोगे?’

‘चलूँगा।’ चुप होते हुए मोहन ने कहा।

मोहन के मन में पगली से दूर रहने की बड़ी इच्छा थी। श्रीचन्द्र ने पण्डा को कुछ रुपये दिये कि पगली का कुछ उचित प्रबन्ध कर दिया जाय और बोले, ‘चाची, मैं मोहन को गाड़ी दिलाने के लिए बाजार लिवाता जाऊँ?’

चाची ने कहा, ‘हाँ-हाँ, आपका ही लड़का है।’

‘मैं फिर आता हूँ, आपके पड़ोस में तो ठहरा हूँ।’ कहकर श्रीचन्द्र, किशोरी और मोहन बाजार की ओर चले।

ऊपर लिखी हुई घटना को महीनों बीत चुके थे। अभी तक श्रीचन्द्र और किशोरी अयोध्या में ही रहे। नागेश्वर में मन्दिर के पास ही डेरा था। सरयू की तीव्र धारा सामने बह रही थी। स्वर्गद्वार के तट पर स्नान करके श्रीचन्द्र व किशोरी बैठे थे। पास ही एक बैरागी रामायण की कथा कह रहा था-

‘राम एक तापस-तिय तारी।

नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥’

‘तापस-तिय तारी-गौतम की पत्नी अहल्या को अपनी लीला करते समय भगवान ने तार दिया। वह यौवन के प्रमाद से, इन्द्र के दुराचार से छली गयी। उसने पति से इस लोक के देवता से छल किया। वह पामरी इस लोक के सर्वश्रेष्ठ रत्न सतीत्व से वंचित हुई, उसके पति ने शाप दिया, वह पत्थर हो गयी। वाल्मीकि ने इस प्रसंग पर लिखा है-वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी। ऐसी कठिन तपस्या करते हुए, पश्चात्ताप का अनुभव करते हुए वह पत्थर नहीं तो और क्या थी! पतित-पावन ने उसे शाप विमुक्त किया। प्रत्येक पापों के दण्ड की सीमा होती है। सब काम में अहिल्या-सी स्त्रियों के होने की संभावना है, क्योंकि कुमति तो बची है, वह जब चाहे किसी को अहल्या बना सकती है। उसके लिए उपाय है भगवान का नाम-स्मरण। आप लोग नाम-स्मरण का अभिप्राय यह न समझ लें कि राम-राम चिल्लाने से नाम-स्मरण हो गया-

‘नाम निरूपन नाम जतन से।

सो प्रकटत जिमि मोल रतन ते॥’

‘इस ‘राम’ शब्दवाची उस अखिल ब्रह्माण्ड पें रमण करने वाले पतित-पावन की सत्ता को सर्वत्र स्वीकार करते हुए सर्वस्व अर्पण करने वाली भक्ति के साथ उसका स्मरण करना ही यथार्थ में नाम-स्मरण है!’

वैरागी ने कथा समाप्त की। तुलसी बँटी। सब लोग जाने लगे। श्रीचन्द्र भी चलने के लिए उत्सुक था; परन्तु किशोरी का हृदय काँप रहा था अपनी दशा पर और पुलकित हो रहा था भगवान की महिमा पर। उसने विश्वासपूर्ण नेत्रों से देखा कि सरयू प्रभात के तीव्र आलोक में लहराती हुई बह रही है। उसे साहस हो चला था। आज उसे पाप और उससे मुक्ति का नवीन रहस्य प्रतिभासित हो रहा था। पहली ही बार उसने अपना अपराध स्वीकार किया और यह उसके लिए अच्छा अवसर था कि उसी क्षण उससे उद्धार की भी आशा थी। वह व्यस्त हो उठी।

पगली अब स्वस्थ हो चली थी। विकार तो दूर हो गये थे, किन्तु दुर्बलता बनी थी, वह हिन्दू धर्म की ओर अपरिचित कुतूहल से देखने लगी थी, उसे वह मनोरंजक दिखलायी पड़ता था। वह भी चाची के साथ श्रीचन्द्र वाले घाट से दूर बैठी हुई, सरयू-तट का प्रभात और उसमें हिन्दू धर्म के आलोक को सकुतूहल देख रही थी।

इधर श्रीचन्द का मोहन से हेलमेल बढ़ गया था और चाची भी उसकी रसोई बनाने का काम करती थी। वह हरद्वार से अयोध्या लौट आयी थी, क्योंकि वहाँ उसका मन न लगा।

चाची का वह रूप पाठक भूले न होगे; जब वह हरद्वार में तारा के साथ रहती थी; परन्तु तब से अब अन्तर था। मानव मनोवृत्तियाँ प्रायः अपने लिए एक केन्द्र बना लिया करती हैं, जिसके चारों ओर वह आशा और उत्साह से नाचती रहती हैं। चाची तारा के उस पुत्र को, जिसे वह अस्पताल में छोड़कर चली आयी थी, अपना ध्रुव नक्षत्र समझने लगी थी, मोहन को पालने के लिए उसने अधिकारियों से माँग लिया था।

पगली और चाची जिस घाट पर बैठी थीं; वहाँ एक अन्धा भिखारी लठिया टेकता हुआ, उन लोगों के समीप आया। उसने कहा, ‘भीख दो बाबा! इस जन्म में कितने अपराध किये हैं-हे भगवान! अभी मौत नहीं आती।’ चाची चमक उठीं। एक बार उसे ध्यान से देखने लगीं। सहसा पगली ने कहा, ‘अरे, तुम मथुरा से यहाँ भी आ पहुँचे।’

‘तीर्थों में घूमता हूँ बेटा! अपना प्रायश्चित्त करने के लिए, दूसरा जन्म बनाने के लिए! इतनी ही तो आशा है।’ भिखारी ने कहा।

पगली उत्तेजित हो उठी। अभी उसके मस्तिष्क की दुर्बलता गयी न थी। उसने समीप जाकर उसे झकझोरकर पूछा, ‘गोविन्दी चौबाइन की पाली हुई बेटी को तुम भूल गये पण्डित, मैं वही हूँ; तुम बताओ मेरी माँ को अरे घृणित नीच अन्धे! मेरी माता से छुड़ाने वाले हत्यारे! तू कितना निष्ठुर है।’

‘क्षमा कर बेटी। क्षमा में भगवान की शक्ति है, उनकी अनुकम्पा है। मैंने अपराध किया था, उसी का तो फल भोग रहा हूँ। यदि तू सचमुच वही गोविन्दी चौबाइन की पाली हुई पगली है, तो तू प्रसन्न हो जा-अपने अभिशाप ही ज्वाला में मुझे जलता हुआ देखकर प्रसन्न हो जा! बेटी, हरद्वार तक तो तेरी माँ का पता था, पर मैं बहुत दिनों से नहीं जानता कि वह अब कहाँ है। नन्दो कहाँ है यह बताने में अब अन्धा रामदेव असमर्थ है बेटी।’

चाची ने उठकर सहसा उस अन्धे का हाथ पकड़कर कहा, ‘रामदेव!’

रामदेव ने एक बार अपनी अंधी आँखों से देखने की भरपूर चेष्टा की, फिर विफल होकर आँसू बहाते हुए बोला, ‘नन्दो का-सा स्वर सुनायी पड़ता है! नन्दो, तुम्हीं हो बोलो! हरद्वार से तुम यहाँ आयी हो हे राम! आज तुमने मेरा अपराध क्षमा कर दिया, नन्दो! यही तुम्हारी लड़की है!’ रामदेव की फूटी आँखों से आँसू बह रहे थे।

एक बार पगली ने नन्दो चाची की ओर देखा और नन्दो ने पगली की ओर-रक्त का आकर्षण तीव्र हुआ, दोनों गले से मिलकर रोने लगीं। यह घटना दूर पर हो रही थी। किशोरी और श्रीचन्द्र का उससे कुछ सम्बन्ध न था।

अकस्मात् अन्धा रामदेव उठा और चिल्लाकर कहने लगा, ‘पतित-पावन की जय हो। भगवान मुझे शरण में लो!’ जब तक उसे सब लोग देखें, तब तक वह सरयू की प्रखर धारा में बहता हुआ, फिर डुबता हुआ दिखायी पड़ा।

घाट पर हलचल मच गयी। किशोरी कुछ व्यस्त हो गयी। श्रीचन्द्र भी इस आकस्मिक घटना से चकित-सा हो रहा था।

अब यह एक प्रकार से निश्चित हो गया कि श्रीचन्द्र मोहन को पालेंगे और वे उसे दत्तक रूप में भी ग्रहण कर सकते हैं। चाची को सन्तोष हो गया था, वह मोहन को धनी होने की कल्पना में सुखी हो सकी। उसका और भी एक कारण था-पगली का मिल जाना। वह आकस्मिक मिलन उन लोगों के लिए अत्यन्त हर्ष का विषय था। किन्तु पगली अब तक पहचानी न जा सकी थी, क्योंकि वह बीमारी की अवस्था में बराबर चाची के घर पर ही रही, श्रीचन्द्र से चाची को उसकी सेवा के लिए रुपये मिलते। वह धीरे-धीरे स्वस्थ हो चली, परन्तु वह किशोरी के पास न जाती। किशोरी को केवल इतना मालूम था कि नन्दो की पगली लड़की मिल गयी है। एक दिन यह निश्चय हुआ कि सब लोग काशी चलें; पर पगली अभी जाने के लिए सहमत न थी। मोहन श्रीचन्द्र के यहाँ रहता था। पगली भी किशोरी का सामना करना नहीं चाहती थी; पर उपाय क्या था। उसे उन लोगों के साथ जाना ही पड़ा। उसके पास केवल एक अस्त्र बचा था, वह था घूँघट! वह उसी की आड़ में काशी आयी। किशोरी के सामने भी हाथों घूँघट निकाले रहती। किशोरी नन्दो के चिढ़ने से डर से उससे कुछ न बोलती। मोहन को दत्तक लेने का समय समीप था, वह तब तक चाची को चिढ़ाना भी न चाहती, यद्यपि पगली का घूँघट उसे बहुत खलता था।

किशोरी को विजय की स्मृति प्रायः चौंका देती है। एकान्त में वह रोती रहती है, उसकी वही तो सारी कमाई, जीवन भर के पाप-पुण्य का संचित धन विजय! आह, माता का हृदय रोने लगता है।

काशी आने पर एक दिन पण्डितजी के कुछ मंत्रों ने प्रकट रूप में श्रीचन्द्र को मोहन का पिता बना दिया। नन्दो चाची को अपनी बेटी मिल चुकी थी, अब मोहन के लिए उसके मन में उतनी व्यथा न थी। मोहन भी श्रीचन्द्र को बाबूजी कहने लगा था। वह सुख में पलने लगा।

किशोरी पारिजात के पास बैठी हुई अपनी चिन्ता में निमग्न थी। नन्दो के साथ पगली स्नान करके लौट आयी थी। चादर उतारते हुए नन्दो ने पगली से कहा, ‘बेटी!’

उसने कहा, ‘माँ!’

‘तुमको सब किस नाम से पुकारते थे, यह तो मैंने आज तक न पूछा। बताओ बेटी वह प्यारा नाम।’

‘माँ, मुझे चौबाइन ‘घण्टी’ नाम से पुकारती थी।’

‘चाँदी की सुरीली घण्टी-सी ही तेरी बोली है बेटी।’

किशोरी सुन रही थी। उसने पास आकर एक बार आँख गड़ाकर देखा और पूछा, ‘क्या कहा-घण्टी?’

‘हाँ बाबूजी! वही वृदांवन वाली घण्टी!’

किशोरी आग हो गयी। वह भभक उठी, ‘निकल जा डायन! मेरे विजय को खा डालने वाली चुड़ैल।’

नन्दो तो पहले एक बार किशोरी की डाँट पर स्तब्ध रही; पर वह कब सहने वाली! उसने कहा, ‘मुँह सम्भालकर बात करो बहू। मैं किसी से दबने वाली नहीं। मेरे सामने किसका साहस है, जो मेरी बेटी, मेरी घण्टी को आँख दिखलावे! आँख निकाल लूँ!’

‘तुम दोनों अभी निकल जाओ-अभी जाओ, नहीं तो नौकरों से धक्के देकर निकलवा दूँगी।’ हाँफते हुई किशोरी ने कहा।

‘बस इतना ही तो-गौरी रूठे अपना सुहाग ले! हम लोग जाती हैं, मेरे रुपये अभी दिलवा दो!’ बस एक शब्द भी मुँह से न निकालना-समझी!’

नन्दो ने तीखेपन से कहा।

किशोरी क्रोध में उठी और अलमारी खोलकर नोटों का बण्डल उसके सामने फेंकती हुई बोली, ‘लो सहेजो अपना रुपया, भागो।’

नन्दो ने घण्टी से कहा, ‘चलो बेटी! अपना सामान ले लो।’

दोनों ने तुरन्त गठरी दबाकर बाहर की राह ली। किशोरी ने एक बार भी उन्हें ठहरने के लिए न कहा। उस समय श्रीचन्द्र और मोहन गाड़ी पर चढ़कर हवा खाने गये थे।

किशोरी का हृदय इस नवान्तुक कल्पित सन्तान से विद्रोह तो कर ही रहा था, वह अपना सच्चा धन गँवाकर इस दत्तक पुत्र से मन भुलवाने में असमर्थ थी। नियति की इस आकस्मिक विडम्बना ने उसे अधीर बना दिया। जिस घण्टी के कारण विजय अपने सुखमय संसार को खो बैठा और किशोरी ने अपने पुत्र विजय को; उसी घण्टी का भाई आज उसके सर्वस्व का मालिक है, उत्तराधिकारी है। दुर्दैव का कैसा परिहास है! वह छटपटाने लगी; परन्तु अब कर ही क्या सकती थी। धर्म के विधान से दत्तक पुत्र उसका अधिकारी था और विजय नियम के विधान से निर्वासित-मृतक-तुल्य!

मंगलदेव की पाठशाला में अब दो विभाग हैं-एक लड़कों का, दूसरा लड़कियों का। गाला लड़कियों की शिक्षा का प्रबन्ध करती। अब वह एक प्रभावशाली गम्भीर युवती दिखलाई पड़ती, जिसके चारों ओर पवित्रता और ब्रह्मचर्य का मण्डल घिरा रहता! बहुत-से लोग जो पाठशाला में आते, वे इस जोड़ी को आश्चर्य से देखते। पाठशाला के बड़े छप्पर के पास ही गाला की झोंपड़ी थी, जिसमें एक चटाई, तीन-चार कपड़े, एक पानी का बरतन और कुछ पुस्तकें थीं। गाला एक पुस्तक मनोयोग से पढ़ रही थी। कुछ पन्ने उलटते हुए उसने सन्तुष्ट होकर पुस्तक धर दी। वह सामने की सड़क की ओर देखने लगी। फिर भी कुछ समझ में न आया। उसने बड़बड़ाते हुए कहा, ‘पाठ्यक्रम इतना असम्बद्ध है कि यह मनोविकास में सहायक होने के बदले, स्वयं भार हो जायेगा।’ वह फिर पुस्तक पढ़ने लगी-‘रानी ने उन पर कृपा दिखाते हुए छोड़ दिया और राजा ने भी रानी की उदारता पर हँसकर प्रसन्नता प्रकट की…’ राजा और रानी, इसमें रानी स्त्री और पुरुष बनाने का, संसार का सहनशील साझीदार होने का सन्देश कहीं नहीं। केवल महत्ता का प्रदर्शन, मन पर अनुचित प्रभाव का बोझ! उसने झुँझलाकर पुस्तक पटककर एक निःश्वास लिया, उसे बदन का स्मरण हुआ, ‘बाबा’ कहकर एक बार चिहुँक उठी! वह अपनी ही भर्त्सना प्रारम्भ कर चुकी थी। सहसा मंगलदेव मुस्कुराता हुआ सामने दिखाई पड़ा। मिट्टी के दीपक की लौ भक-भक करती हुई जलने लगी।

‘तुमने कई दिन लगा दिये, मैं तो अब सोने जा रही थी।’

‘क्या करूँ, आश्रम की एक स्त्री पर हत्या का भयानक अभियोग था। गुरुदेव ने उसकी सहायता के लिए बुलाया था।’

‘तुम्हारा आश्रम हत्यारों की भी सहायता करता है?’

‘नहीं गाला! वह हत्या उसने नहीं की थी, वस्तुतः एक दूसरे पुरुष ने की; पर वह स्त्री उसे बचाना चाहती है।’

‘क्यों?’

‘यही तो मैं समझ न सका।’

‘तुम न समझ सके! स्त्री एक पुरुष को फाँसी से बचाना चाहती है और इसका कारण तुम्हारी समझ में न आया-इतना स्पष्ट कारण!’

‘तुम क्या समझती हो?’

‘स्त्री जिससे प्रेम करती है, उसी पर सरबस वार देने को प्रस्तुत हो जाती है, यदि वह भी उसका प्रेमी हो तो स्त्री वय के हिसाब से सदैव शिशु, कर्म में वयस्क और अपनी सहायता में निरीह है। विधाता का ऐसा ही विधान है।’

मंगल ने देखा कि अपने कथन में गाला एक सत्य का अनुभव कर रही है। उसने कहा, ‘तुम स्त्री-मनोवृत्ति को अच्छी तरह समझ सकती हो; परन्तु सम्भव है यहाँ भूल कर रही हो। सब स्त्रियाँ एक ही धातु की नहीं। देखो, मैं जहाँ तक उसके सम्बन्ध में जानता हूँ, तुम्हें सुनाता हूँ, वह एक निश्छल प्रेम पर विश्वास रखती थी और प्राकृतिक नियम से आवश्यक था कि एक युवती किसी भी युवक पर विश्वास करे; परन्तु वह अभागा युवक उस विश्वास का पात्र नहीं था। उसकी अत्यन्त आवश्यक और कठोर घड़ियों में युवक विचलित हो उठा। कहना न होगा कि उसे युवक ने उसके विश्वास को बुरी तरह ठुकराया। एकाकिनी उस आपत्ति की कटुता झेलने के लिए छोड़ दी गयी। बेचारी को एक सहारा भी मिला; परन्तु यह दूसरा युवक भी उसके साथ वही करने के लिए प्रस्तुत था, जो पहले युवक ने किया। वह फिर अपना आश्रय छोड़ने के लिये बाध्य हुई। उसने संघ की छाया में दिन बिताना निश्चित किया। एक दिन उसने देखा कि यही दूसरा युवक एक हत्या करके फाँसी पाने की आशा में हठ कर रहा है। उसने हटा लिया, आप शव के पास बैठी रही। पकड़ी गयी, तो हत्या का भार अपने सिर ले लिया। यद्यपि उसने स्पष्ट स्वीकार नहीं किया; परन्तु शासन को तो एक हत्या के बदले दूसरी हत्या करनी ही है। न्याय की यही समीप मिली, उसी पर अभियोग चल रहा है। मैं तो समझता हूँ कि वह हताश होकर जीवन दे रही है। उसका कारण प्रेम नहीं है, जैसा तुम समझ रही हो।’

गाला ने एक दीर्घ श्वास लिया। उसने कहा, ‘नारी जाति का निर्माण विधाता की एक झुँझलाहट है। मंगल! संसार-भर के पुरुष उससे कुछ लेना चाहते हैं, एक माता ही सहानुभूति रखती है; इसका कारण है उसका स्त्री होना। हाँ, तो उसने न्यायालय में अपना क्या वक्तव्य दिया?’

उसने कहा-‘पुरुष स्त्रियों पर सदैव अत्याचार करते हैं, कहीं नहीं सुना गया कि अमुक स्त्री ने अमुक पुरुष के प्रति ऐसा ही अन्याय किया; परन्तु पुरुषों का यह साधारण व्यवसाय है, स्त्रियों पर आक्रमण करना! जो अत्याचारी है, वह मारा गया। कहा जाता है कि न्याय के लिए न्यायालय सदैव प्रस्तुत रहता है; परन्तु अपराध हो जाने पर ही विचार करना उसका काम है। उस न्याय का अर्थ है किसी को दण्ड देना! किन्तु उसके नियम उस आपत्ति से नहीं बच सकते। सरकारी वकील कहते हैं-न्याय को अपने हाथ में लेकर तुम दूसरा अन्याय नहीं कर सकते; परन्तु उस क्षण की कल्पना कीजिये कि उसका सर्वस्व लुटा चाहता है और न्याय के रक्षक अपने आराम में हैं। वहाँ एक पत्थर का टुकड़ा ही आपत्तिग्रस्त की रक्षा कर सकता है। तब वह क्या करे, उसका भी उपयोग न करे! यदि आपके सुव्यवस्थित शासन में कुछ दूसरा नियम है, तो आप प्रसन्नता से मुझे फाँसी दे सकते हैं। मुझे और कुछ नहीं कहना।’-वह निर्भीक युवती इतना कहकर चुप हो गयी। न्यायाधीश दाँतों-तले ओठ दबाये चुप थे। साक्षी बुलाये गये। पुलिस ने दूसरे दिन उन्हें ले आने की प्रतिज्ञा की है। गाला! मैं तुमसे भी कहता हूँ कि ‘चलो, इस विचित्र अभियोग को देखो; परन्तु यहाँ पाठशाला भी तो देखनी है। अबकी बार मुझे कई दिन लगेंगे!’

‘आश्चर्य है, परन्तु मैं कहती हूँ कि वह स्त्री अवश्य उस युवक से प्रेम करती है, जिसने हत्या की है। जैसा तुमने कहा, उससे तो यही मालूम होता है कि दूसरा युवक उसका प्रेमपात्र है, जिसने उसे सताना चाहा था।’

‘गाला! पर मैं कहता हूँ कि वह उससे घृणा करती थी। ऐसा क्यों! मैं न कह सकूँगा; पर है बात कुछ ऐसी ही।’ सहसा रुककर मंगल चुपचाप सोचने लगा-हो सकता है! ओह, अवश्य विजय और यमुना!-यही तो मानता हूँ कि हृदय में एक आँधी रहती है; एक हलचल लहराया करती है, जिसके प्रत्येक धक्के में ‘बढ़ो-बढ़ो!’ की घोषणा रहती है। वह पागलपन संसार को तुच्छ लघुकण समझकर उसकी ओर उपेक्षा से हँसने का उत्साह देता है। संसार का कर्तव्य, धर्म का शासन केले के पत्ते की तरह धज्जी-धज्जी उड़ जाता है। यही तो प्रणय है। नीति की सत्ता ढोंग मालूम पड़ती है और विश्वास होता है कि समस्त सदाचार उसी का साधना है। हाँ, वहीं सिद्धि है। आह, अबोध मंगल! तूने उसे पाकर भी न पाया। नहीं-नहीं, वह पतन था, अवश्य माया थी। अन्यथा, विजय की ओर इतनी प्राण दे देने वाली सहानुभूति क्यों आह, पुरुष-जीवन के कठोर सत्य! क्या इस जीवन में नारी को प्रणय-मदिरा के रूप में गलकर तू कभी न मिलेगा परन्तु स्त्री जल-सदृश कोमल एवं अधिक-से-अधिक निरीह है। बाधा देने की सामर्थ्य नहीं; तब भी उसमें एक धारा है, एक गति है, पत्थरों की रुकावट की उपेक्षा करके कतराकर वह चली ही जाती है। अपनी सन्धि खोज ही लेती है, और सब उसके लिए पथ छोड़ देते हैं, सब झुकते हैं! सब लोहा मानते हैं किन्तु सदाचार की प्रतिज्ञा, तो अर्पण करना होगा धर्म की बलिवेदी पर मन का स्वातंत्र्य! कर तो दिया, मन कहाँ स्वतन्त्र रहा! अब उसे एक राह पर लगाना होगा। वह जोर से बोल उठा, ‘गाला! क्या यही!!’

गाला चिन्तित मंगल का मुँह देख रही थी। वह हँस पड़ी। बोला, ‘कहाँ घूम रहे हो मंगल?’

मंगल चौंक उठा। उसने देखा, जिसे खोजता था वही कब से मुझे पुकार रहा है। वह तुरन्त बोला, ‘कहीं तो नहीं, गाला!’

आज पहला अवसर था, गाला ने मंगल को उसके नाम से पुकारा। उसमें सरलता थी, हृदय की छाया थी। मंगल ने अभिन्नता का अनुभव किया। हँस पड़ा।

‘तुम कुछ सोच रहे थे। यही कि स्त्रियाँ ऐसा प्रेम कर सकती हैं तर्क ने कहा होगा-नहीं! व्यवहार ने समझाया होगा, यह सब स्वप्न है! यही न। पर मैं कहती हूँ सब सत्य है, स्त्री का हृदय…प्रेम का रंगमंच है! तुमने शास्त्र पढ़ा है, फिर भी तुम स्त्रियों के हृदय को परखने में उतने कुशल नहीं हो, क्योंकि…’

बीच में रोककर मंगल ने पूछा, ‘और तुम कैसे प्रेम का रहस्य जानती हो गाला! तुम भी तो…’

‘स्त्रियों का यह जन्मसिद्ध उत्तराधिकार है, मंगल! उसे खोजना, परखना नहीं होता, कहीं से ले आना नहीं होता। वह बिखरा रहता है असावधानी से धनकुबेर की विभूति के समान! उसे सम्हालकर केवल एक ओर व्यय करना पड़ता है-इतना ही तो!’ हँसकर गाला ने कहा।

‘और पुरुष को… ?’मंगल ने पूछा।

‘हिसाब लगाना पड़ता है, उसे सीखना पड़ता है। संसार में जैसे उसकी महत्त्वाकांक्षा की और भी बहुत-सी विभूतियाँ हैं, वैसे ही यह भी एक है। पद्मिनी के समान जल-मरना स्त्रियाँ ही जानती हैं, पुरुष केवल उसी जली हुई राख को उठाकर अलाउद्दीन के सदृश बिखेर देना ही तो जानते हैं!’ कहते-कहते गाला तन गयी थी। मंगल ने देखा वह ऊर्जस्वित सौन्दर्य!

बात बदलने के लिए गाला ने पाठ्यक्रम-सम्बन्धी अपने उपालम्भ कह सुनाये और पाठशाला के शिक्षाक्रम का मनोरंजक विवाद छिड़ा। मंगल उस काननवासिनी के तर्कजालों में बार-बार जान-बूझकर अपने को फँसा देता। अन्त में मंगल ने स्वीकार किया कि वह पाठ्यक्रम बदला जायेगा। सरल पाठों में बालकों के चारित्र्य, स्वास्थ्य और साधारण ज्ञान को विशेष सहायता देने को उपकरण जुटाया जायेगा।

स्वावलम्बन का व्यावहारिक विषय निर्धारित होगा।

गाला ने सन्तोष की साँस लेकर देखा-आकाश का सुन्दर शिशु बैठा हुआ बादलों की क्रीड़ा-शैली पर हँस रहा था और रजनी शीतल हो चली थी। रोएँ अनुभूति में सुगबुगाने लगे थे। दक्षिण पवन जीवन का सन्देश लेकर टेकरी पर विश्राम करने लगा था। मंगल की पलकें भारी थीं और गाला झीम रही थी। कुछ ही देर में दोनों अपने-अपने स्थान पर बिना किसी शैया के, आडम्बर के सो गये।

कंकाल – जयशंकर प्रसाद – 3

एक दिन सवेरे की गाड़ी से वृन्दावन के स्टेशन पर नन्दो और घण्टी उतरीं। बाथम स्टेशन के समीप ही सड़क पर ईसाई-धर्म पर व्याख्यान दे रहा था-

‘यह देवमन्दिरों की यात्राएँ तुम्हारे मन में क्या भावा लाती हैं, पाप की या पुण्य की तुम जब पापों के बोझ से लदकर, एक मन्दिर की दीवार से टिककर लम्बी साँस खींचते हुए सोचोगे कि मैं इससे छू जाने पर पवित्र हो गया, तो तुम्हारे में फिर से पाप करने की प्रेरणा बढ़ेगी! यह विश्वास कि देवमन्दिर मुझे पाप से मुक्त कर देंगे, भ्रम है।’

सहसा सुनने वालों में से मंगल ने कहा, ‘ईसाई! तुम जो कह रहे हो, यदि वही ठीक है, तो इस भाव के प्रचार का सबसे बड़ा दायित्व तुम लोगों पर है, जो कहते हैं कि पश्चात्ताप करो, तुम पवित्र हो जाओगे। भाई, हम लोग तो इस सम्बन्ध में ईश्वर को भी इस झंझट से दूर रखना चाहते हैं-

‘जो जस करे सो तस फल चाखा!’

सुनने वालों ने ताली पीट दी। बाथम एक घोर सैनिक की भाँति प्रत्यावर्तन कर गया, वह भीड़ में से निकलकर अभी स्टेशन की ओर चला था कि सिर पर गठरी लिये हुए नन्दो के पीछे घण्टी जाती दिखाई पड़ी, वह उत्तेजित होकर लपका, उसने पुकारा, ‘घण्टी!’

घण्टी के हृदय में सनसनी दौड़ गयी। उसने नन्दो का कन्धा पकड़ लिया। धर्म का व्याख्याता ईसाई, पशु के फंदे में अपना गला फाँसकर उछलने लगा। उसने कहा, ‘घण्टी! चलो हम तुमको खोजकर लाचार हो गये-आह डार्लिंग!’

भयभीत घण्टी सिकुड़ी जाती थी। नन्दो ने डपटकर कहा, ‘तू कौन है रे! क्या सरकारी राज नहीं रहा! आगे बढ़ा तो ऐसा झापड़ लगेगा कि तेरा टोप उड़ जायेगा।’

दो-चार मनुष्य और इकट्ठे हो गये। बाथम ने कहा, ‘माँ जी, यह मेरी विवाहिता स्त्री है, यह ईसाई है, आप नहीं जानतीं।’

नन्दो तो घबरा गयी और लोगों के भी कान सुगबुगाये; पर सहसा फिर मंगल बाथम के सामने डट गया। उसने घण्टी से पूछा, ‘क्या तुम ईसाई-धर्म ग्रहण कर चुकी हो?’

‘मैं धर्म-कर्म कुछ नहीं जानती। मेरा कोई आश्रय न था, तो इन्होंने मुझे कई दिन खाने को दिया था।’

‘ठीक है; पर तुमने इसके साथ ब्याह किया था?’

‘नहीं, यह मुझे दो-एक दिन गिरजाघर में ले गये थे, ब्याह-व्याह मैं नहीं जानती।’

‘मिस्टर बाथम, वह क्या कहती है क्या आप लोगों का ब्याह चर्च में नियमानुसार हो चुका है-आप प्रमाण दे सकते हैं?’

‘नहीं, जिस दिन होने वाला था, उसी दिन तो यह भागी। हाँ, यह बपतिस्मा अवश्य ले चुकी है।’

‘मैं नहीं जानती।’

‘अच्छा मिस्टर बाथम! अब आप एक भद्र पुरुष होने के कारण इस तरह एक स्त्री को अपमानित न कर सकेंगे। इसके लिए आप पश्चात्ताप तो करेंगे ही, चाहे वह प्रकट न हो। छोड़िए, राह छोड़िए, जाओ देवी!’

मंगल के यह कहने पर भीड़ हट गयी। बाथम भी चला। अभी वह अपनी धुन में थोड़ी ही दूर गया था कि चर्च का बुड्ढा चपरासी मिला। बाथम चौंक पड़ा। चपरासी ने कहा, ‘बड़े साहब की चलाचली है; चर्च को सँभालने के लिए आपको बुलाया है।’

बाथम किंकर्तव्यविमूढ़-सा चर्च के ताँगे पर जा बैठा।

पर नन्दो का तो पैर ही आगे नहीं पड़ता था। वह एक बार घण्टी को देखती, फिर सड़क को। घण्टी के पैर उसी पृथ्वी में गड़े जा रहे थे। दुःख के दोनों के आँसू छलक आये थे। दूर खड़ा मंगल भी यह सब देख रहा था, वह फिर पास आया, बोला, ‘आप लोग अब यहाँ क्यों खड़ी हैं?’

नन्दो रो पड़ी, बोली, ‘बाबूजी, बहुत दिन पर मेरी बेटी मिली भी, तो बेधरम होकर! हाय अब मैं क्या करूँ?’

मंगल के मस्तिष्क में सारी बातें दौड़ गयीं, वह तुरंत बोल उठा, ‘आप लोग गोस्वामीजी के आश्रम में चलिए, वहाँ सब प्रबन्ध हो जायेगा, सड़क पर खड़ी रहने से फिर भीड़ लग जायेगी। आइये, मेरे पीछे-पीछे चली आइये।’ मंगल ने आज्ञापूर्ण स्वर में ये शब्द कहे। दोनों उसके पीछे-पीछे आँसू पोंछती हुई चलीं।

मंगल को गम्भीर दृष्टि से देखते हुए गोस्वामी जी ने पूछा, ‘तुम क्या चाहते हो?’

‘गुरुदेव! आपकी आज्ञा का पालन करना चाहता हूँ; सेवा-धर्म की जो दीक्षा आपने मुझे दी है, उसकी प्रकाश्य रूप से व्यवहृत करने की मेरी इच्छा है। देखिये, धर्म के नाम पर हिन्दू स्त्रियों, शूद्रों, अछूतों-नहीं, वही प्राचीन शब्दों में कहे जाने वाली पापयोनियों-की क्या दुर्दशा हो रही है! क्या इन्हीं के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने परागति पाने की व्यवस्था नहीं दी है क्या वे सब उनकी दया से वंचित ही रहें।

‘मैं आर्यसमाज का विरोध करता था, मेरी धारणा थी कि धार्मिक समाज में कुछ भीतरी सुधार कर देने से काम चल जायेगा; किन्तु गुरुदेव! यह आपका शिष्य मंगल आप ही की शिक्षा से आज यह कहने का साहस करता है कि परिवर्तन आवश्यक है; एक दिन मैंने अपने मित्र विजय का इन्हीं विचारों के लिए विरोध किया था; पर नहीं, अब मेरी यही दृढ़ धारणा हो गयी है कि इस जर्जर धार्मिक समाज में जो पवित्र हैं, वे पवित्र बने रहें, मैं उन पतितों की सेवा करूँ, जिन्हें ठोकरें लग रही हैं, जो बिलबिला रहे हैं।

‘मुझे पतितपावन के पदांक का अनुसरण करने की आज्ञा दीजिए। गुरुदेव, मुझसे बढ़कर कौन पतित होगा कोई नहीं, आज मेरी आँखें खुल गयी हैं, मैं अपने समाज को एकत्र करूँगा और गोपाल से तब प्रार्थना करूँगा कि भगवान, तुममें यदि पावन करने की शक्ति हो तो आओ। अहंकारी समाज के दम्भ से पद-दलितों पर अपनी करुणा-कादम्बिनी बरसाओ।’

मंगल की आँखों में उत्तेजना के आँसू थे। उसका गला भर आया था। वह फिर कहने लगा, ‘गुरुदेव! उन स्त्रियों की दया पर विचार कीजिये, जिन्हें कल ही आश्रम में आश्रय मिला है।’

‘मंगल! क्या तुमने भली-भाँति विचार कर लिया और विचार करने पर भी तुमने यही कार्यक्रम निश्चित किया है?’ गम्भीरता से कृष्णाशरण ने पूछा।

‘गुरुदेव! जब कार्य करना ही है तब उसे उचित रूप क्यों ने दिया जाय! देवनिरंजन जी से परामर्श करने पर मैंने तो यही निष्कर्ष निकाला है कि भारत संघ स्थापित होना चाहिए।’

‘परन्तु तुम मेरा सहयोग उसमें न प्राप्त कर सकोगे। मुझे इस आडम्बर में विश्वास नहीं है, यह मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ। मुझे फिर कोई एकान्त कुटिया खोजनी पड़ेगी।’ मुस्कुराते हुए कृष्णशरण ने कहा।

‘कार्य आरम्भ हो जाने दीजिए। गुरुदेव! तब यदि आप उसमें अपना निर्वाह न देखें, तो दूसरा विचार करें। इस कल्याण-धर्म के प्रचार में क्या आप ही विरोधी बनियेगा! मुझे जिस दिन आपने सेवाधर्म का उपदेश देकर वृन्दावन से निर्वासित किया था, उसी दिन से मैं इसके लिए उपाय खोज रहा था; किन्तु आज जब सुयोग उपस्थित हुआ, देवनिरंजन जी जैसा सहयोगी मिल गया, तब आप ही मुझे पीछे हटने को कह रहे हैं।’

पूर्ण गम्भीर हँसी के साथ गोस्वामीजी कहने लगे, ‘तब निर्वासन का बदला लिये बिना तुम कैसे मानोगे मंगल, अच्छी बात है, मैं शीघ्र प्रतिफल का स्वागत करता हूँ। किन्तु, मैं एक बात फिर कह देना चाहता हूँ कि मुझे व्यक्तिगत पवित्रता के उद्योग में विश्वास है, मैंने उसी को सामने रखकर उन्हें प्रेरित किया था। मैं यह न स्वीकार करूँगा कि वह भी मुझे न करना चाहिए था। किन्तु, जो कर चुका, वह लौटाया नहीं जा सकता। तो फिर करो, जो तुम लोगों की इच्छा!’

मंगल ने कहा, ‘गुरुदेव, क्षमा कीजिये, आशीर्वाद दीजिए।’

अधिक न कहकर वह चुप हो गया। वह इस समय किसी भी तरह गोस्वामी जी से भारत-संघ का आरम्भ करा लिया चाहता था।

निरंजन ने जब वह समाचार सुना, तो उसे अपनी विजय पर प्रसन्नता हुई, दोनों उत्साह से आगे का कार्यक्रम बनाने लगे।

कंकाल – जयशंकर प्रसाद – 4

कृष्णशरण की टेकरी ब्रज-भर में कुतूहल और सनसनी का केन्द्र बन रही थी। निरंजन के सहयोग से उसमें नवजीवन का संचार होने लगा, कुछ ही दिनों से सरला और लतिका भी उस विश्राम-भवन में आ गयी थीं। लतिका बड़े चाव से वहाँ उपदेश सुनती। सरला तो एक प्रधान महिला कार्यकर्त्री थी। उसके हृदय में नयी स्फूर्ति थी और शरीर में नये साहस का साहस का संचार था। संघ में बड़ी सजीवता आ चली। इधर यमुना के अभियोग में भी हृदय प्रधान भाग ले रहा था, इसलिए बड़ी चहल-पहल रहती।

एक दिन वृन्दावन की गलियों में सब जगह बड़े-बड़े विज्ञापन चिपक रहे थे। उन्हें लोग भय और आश्चर्य से पढ़ने लगे-

भारत संघ

हिन्दू-धर्म का सर्वसाधारण के लिए

खुला हुआ द्वार

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों से

(जो किसी विशेष कुल में जन्म लेने के कारण संसार में सबसे अलग रहकर, निस्सार महत्ता में फँसे हैं)

भिन्न एक नवीन हिन्दू जाति का

संगठन कराने वाला सुदृढ़ केन्द्र

जिसका आदर्श प्राचीन है-

राम, कृष्ण, बुद्ध की आर्य संस्कृति का प्रचारक

वही

भारत संघ

सबको आमंत्रित करता है।

दूसरे दिन नया विज्ञापन लगा-

भारत संघ

वर्तमान कष्ट के दिनों में

श्रेणीवाद

धार्मिक पवित्रतावाद,

आभिजात्यवाद, इत्यादि अनेक रूपों में

फैले हुए सब देशों के भिन्न प्रकारों के जातिवाद की

अत्यन्त उपेक्षा करता है।

श्रीराम ने शबरी का आतिथ्य ग्रहण किया था,

बुद्धदेव ने वेश्या के निमंत्रण की रक्षा की थी;

इन घटनाओं का स्मरण करता हुआ

भारत-संघ मानवता के नाम पर

सबको गले से लगाता है!

राम, कृष्ण, और बुद्ध महापुरुष थे

इन लोगों ने सत्साहस का पुरस्कार पाया था

‘कष्ट, तीव्र उपेक्षा और तिरस्कार!’

भारत संघ भी

आप लोगों की ठोकरों की धूल

सिर से लगावेगा।

वृदावन उत्तेजना की उँगलियों पर नाचने लगा। विरोध में और पक्ष में-देवमन्दिरों, कुंजों, गलियों और घाटों पर बातें होने लगीं।

तीसरे दिन फिर विज्ञापन लगा-

मनुष्य अपनी सुविधा के लिए

अपने और ईश्वर के सम्बन्ध को

धर्म

अपने और अन्य ईश्वर के सम्बन्ध को

नीति

और रोटी-बेटी के सम्बन्ध को

समाज

कहने लगता है, कम-से-कम

इसी अर्थ में इन शब्दों का व्यवहार करता है।

धर्म और नीति में शिथिल

हिन्दुओं का समाज-शासन

कठोर हो चला है!

क्योंकि, दुर्बल स्त्रियों पर ही शक्ति का उपयोग करने की

उसके पास क्षमता बच रही है-

और यह अत्याचार प्रत्येक काल और देश के

मनुष्यों ने किया है;

स्त्रियों की

निसर्ग-कोमल प्रकृति और उसकी रचना

इसका कारण है।

भारत संघ

ऋषि-वाणी को दोहराता है

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’

कहता है-स्त्रियों का सम्मान करो!

वृदावन में एक भयानक हलचल मच गयी। सब लोग आजकल भारत संघ और यमुना के अभियोग की चर्चा में संलग्न हैं। भोजन करके पहल की आधी छोड़ी हुई बात फिर आरम्भ हो जाती है-वही भारत-संघ और यमुना!

मन्दिर के किसी-किसी मुखिया को शास्त्रार्थ की सूझी। भीतर-भीतर आयोजन होने लगा। पर अभी खुलकर कोई प्रस्ताव नहीं आया था। उधर यमुना के अभियोग के लिए सहायतार्थ चन्दा भी आने लगा। वह दूसरी ओर की प्रतिक्रिया थी।

कंकाल – जयशंकर प्रसाद – 5

कई दिन हो गये थे। मंगल नहीं था। अकेले गाला उस पाठशाला का प्रबन्ध कर रही थी। उसका जीवन उसे नित्य बल दे रहा था, पर उसे कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता कि उसने कोई वस्तु खो दी है। इधर एक पंडितजी उस पाठशाला में पढ़ाने लगे थे। उनका गाँव दूर था; अतः गाला ने कहा, ‘पंडितजी, आप भी यहाँ रहा करें तो अधिक सुविधा हो। रात को छात्रों को कष्ट इत्यादि का समुचित प्रबन्ध भी कर दिया जाता और सूनापन उतना न अखरता।’

पंडितजी सात्त्विक बुद्धि के एक अधेड़ व्यक्ति थे। उन्होंनें स्वीकार कर लिया। एक दिने वे बैठे हुए रामायण की कथा गाला को सुना रहे थे, गाला ध्यान से सुन रही थी। राम वनवास का प्रसंग था। रात अधिक हो गयी थी, पंडितजी ने कथा बन्द कर दी। सब छात्रों ने फूस की चटाई पर पैर फैलाये और पंडितजी ने भी कम्बल सीधा किया।

आज गाला की आँखो में नींद न थी। वह चुपचाप नैन पवन-विकम्पित लता की तरह कभी-कभी विचार में झीम जाती, फिर चौंककर अपनी विचार परम्परा की विशृंखल लड़ियों को सम्हालने लगती। उसके सामने आज रह-रहकर बदन का चित्र प्रस्फुटित हो उठता। वह सोचती-पिता की आज्ञा मानकर राम वनवासी हुए और मैंने पिता की क्या सेवा की उलटा उनके वृद्ध जीवन में कठोर आघात पहुँचाया! और मंगल किस माया में पड़ी हूँ! बालक पढ़ते हैं, मैं पुण्य कर रही हूँ; परन्तु क्या यह ठीक है? मैं एक दुर्दान्त दस्यु और यवनी की बालिका-हिन्दू समाज मुझे किस दृष्टि से देखेगा ओह, मुझे इसकी क्या चिन्ता! समाज से मेरा क्या सम्बन्ध! फिर भी मुझे चिन्ता करनी ही पड़ेगी, क्यों इसका कोई स्पष्ट उत्तर नही दे सकती; पर यह मंगल भी एक विलक्षण.. आहा, बेचारा कितना परोपकारी है, तिस पर उसकी खोज करने वाला कोई नहीं। न खाने की सुध, न अपने शरीर की। सुख क्या है-वह जैसे भूल गया है और मैं भी कैसी हूँ-पिताजी को कितनी पीडा मैंने दी, वे मसोसते होंगे। मैं जानती हूँ, लोहे से भी कठोर मेरे पिता अपने दुःख के किसी की सेवा-सहायता न चाहेंगे। तब यदि उन्हें ज्वर आ गया हो तो उस जंगल के एकान्त में पड़े कराहते होंगे।’ ‘

सहसा जैसे गाला के हृदय की गति रुकने लगी। उसके कान में बदन के कराहने का स्वर सुनायी पड़ा, जैसे पानी के लिए खाट के नीचे हाथ बढ़ाकर टटोल रहा हो। गाला से न रहा गया, वह उठ खड़ी हुई। फिर निस्तब्ध आकाश की नीलिमा में वह बन्दी बना दी गयी। उसकी इच्छा हुई कि चिल्लाकर रो उठे; परन्तु निरुपाय थी। उसने अपने रोने का मार्ग भी बन्द कर दिया था। बड़ी बेचैनी थी। वह तारों को गिन रही थी, पवन की लहरों को पकड़ रही थी।

सचमुच गाला अपने विद्रोही हृदय पर खीज उठी थी। वह अथाह अन्धकार के समुद्र में उभचुभ हो रही थी-नाक में, आँख में, हृदय में जैसे अन्धकार भरा जा रहा था। अब उसे निश्चित हो गया कि वह डूब गयी। वास्तव में वह विचारों में थककर सो गयी।

अभी पूर्व में प्रकाश नहीं फैला था। गाला की नींद उचट गयी। उसने देखा, कोई बड़ी दाढ़ी और मूँछोंवाला लम्बा-चौड़ा मनुष्य खड़ा है। चिन्तित रहने से गाला का मन दुर्बल हो ही रहा था, उस आकृति को देखकर वह सहम गयी। वह चिल्लाना ही चाहती थी कि उस व्यक्ति ने कहा, ‘गाला, मैं हूँ नये!’

‘तुम हो! मैं तो चौंक उठी थी, भला तुम इस समय क्यों आये?’

‘तुम्हारे पिता कुछ घण्टों के लिए संसार में जीवित हैं, यदि चाहो तो देख सकती हो!’

‘क्या सच! तो मैं चलती हूँ।’ कहकर गाला ने सलाई जलाकर आलोक किया। वह एक चिट पर कुछ लिखकर पंडितजी के कम्बल के पास गयी। वे अभी सो रहे थे; गाला चिट उनके सिरहाने रखकर नये के पास गयी, दोनों टेकरी से उतरकर सड़क पर चलने लगे।

नये कहने लगा-

‘बदन के घुटने में गोली लगी थी। रात को पुलिस ने डाके में माल के सम्बन्ध में उस जंगल की तलाशी ली; पर कोई वस्तु वहाँ न मिली। हाँ, अकेले बदन ने वीरता से पुलिस-दल का विरोध किया, तब उस पर गोली चलाई गयी। वह गिर पड़ा। वृद्ध बदन ने इसको अपना कर्तव्य-पालन समझा। पुलिस ने फिर कुछ न पाकर बदन को उसके भाग्य पर छोड़ दिया, यह निश्चित था कि वह मर जायेगा, तब उसे ले जाकर वह क्या करती।

‘सम्भवतः पुलिस ने रिपोर्ट दी-डाकू अधिक संख्या में थे। दोनों ओर से खूब गोलियाँ चलीं; पर कोई मरा नहीं। माल उन लोगों के पास न था। पुलिस दल कम होने के कारण लौट आयी; उन्हें घेर न सकी। डाकू लोग निकल भागे, इत्यादि-इत्यादि।

‘गोली का शब्द सुनकर पास ही सोया भालू भूँक उठा, मैं भी चौंक पड़ा। देखा कि निस्तब्ध अँधेरी रजनी में यह कैसा शब्द। मैं कल्पना से बदन को संकट में समझने लगा।

‘जब से विवाह-सम्बन्ध को अस्वीकार किया, तब से बदन के यहाँ नहीं जाता था। इधर-उधर उसी खारी के तट पर पड़ा रहता। कभी संध्या के समय पुल के पास जाकर कुछ माँग लाता, उसे खाकर भालू और मैं संतुष्ट हो जाते। क्योंकि खारी में जल की कमी तो थी नहीं। आज सड़क पर संध्या को कुछ असाधारण चहल-पहल देखी; इसलिए बदन के कष्ट की कल्पना कर सका।

‘सिंवारपुर के गाँव के लोग मुझे औघड़ समझते-क्योंकि मैं कुत्ते के साथ ही खाता हूँ। कम्बल बगल में दबाये भालू के साथ मैं, जनता की आँखों का एक आकर्षक विषय हो गया हूँ।

‘हाँ तो बदन के संकट ने मुझको उत्तेजित कर दिया। मैं उसके झोंपड़े की ओर चला। वहाँ जाकर जब बदन को घायल कराहते देखा, तब तो मैं जमकर उसकी सेवा करने लगा। तीन दिन बीत गये, बदन का ज्वर भीषण हो चला। उसका घाव भी असाधारण था, गोली तो निकल गयी, पर चोट गहरी थी। बदन ने एक दिन भी तुम्हारा नाम न लिया। संध्या, को जब मैं उसे जल पिला रहा था, मैंने वायु-विकार बदन की आँखों में स्पष्ट देखा। उससे धीरे से पूछा-गाला को बुलाऊँ बदन ने मुँह फेर लिया। मैं अपना कर्तव्य सोचने लगा, फिर निश्चय किया कि आज तुम्हें बुलाना ही चाहिए।’

गाला पथ चलते-चलते यह कथा संक्षेप में सुन रही थी; पर कुछ न बोली। उसे इस समय केवल चलना ही सूझता था।

नये जब गाला को लेकर पहुँचा, तब बदन की अवस्था अत्यन्त भयानक हो चली थी। गाला उसके पैर पकड़कर रोने लगी। बदन ने कष्ट से दोनों हाथ उठाये, गाला ने अपने शरीर को अत्यन्त हलका करके बदन के हाथों में रख दिया। मरणोन्मुख वृद्ध पिता ने अपनी कन्या का सिर चूम लिया।

नये उस समय हट गया था। बदन ने धीरे से उसके कान में कुछ कहा, गाला ने भी समझ लिया कि अब अन्तिम समय है। वह डटकर पिता की खाट के पास बैठ गयी।

हाय! उस दिन की भूखी संध्या ने उसके पिता को छीन लिया।

गाला ने बदन का शव-दाह किया। वह बाहर तो खुलकर रोती न थी, पर उसके भीतर की ज्वाला का ताप उसकी आरक्त आँखों में दिखाई देता था। उसके चारों ओर सूना था। उसने नये से कहा, ‘मैं तो धन का सन्दूक न ले जा सकूँगी, तुम इसे ले लो।’

नये ने कहा, ‘भला मैं क्या करूँगा गाला। मेरा जीवन संसार के भीषण कोलाहल से, उत्सव से और उत्साह से ऊब गया है। अब तो मुझे भीख मिल जाती है। तुम तो इसे पाठशाला में पहुँचा सकती हो। मैं इसे वहाँ पहुँचा सकता हूँ। फिर वह सिर झुकाकर मन-ही-मन सोचने लगा-जिसे मैं अपना कह सकता हूँ, जिसे माता-पिता समझता था, वे ही जब अपने ही नहीं तो दूसरों की क्या?’

गाला ने देखा, नये के मन में एक तीव्र विराग और वाणी में व्यंग्य है। वह चुपचाप दिन भर खारी के तट पर बैठी हुई सोचती रही। सहसा उसने घूमकर देखा, नये अपने कुत्ते के साथ कम्बल पर बैठा है। उसने पूछा, ‘तो नये! यही तुम्हारी सम्पत्ति है न?’

‘हाँ, इससे अच्छा इसका दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता। और यहाँ तुम्हारा अकेले रहना ठीक नहीं।’ नये ने कहा।

‘हाँ पाठशाला भी सूनी है-मंगलदेव वृन्दावन की एक हत्या में फँसी हुई यमुना नाम की एक स्त्री के अभियोग की देख-रेख में गये हैं, उन्हें अभी कई दिन लगेंगे।’

बीच में टोककर नये ने पूछा, ‘क्या कहा, यमुना> वह हत्या में फँसी है?’

‘हाँ, पर तुम क्यों पूछते हो?’

‘मैं भी हत्यारा हूँ गाला, इसी से पूछता हूँ, फैसला किस दिन होगा कब तक मंगलदेव आएँगे?’

‘परसों न्याय का दिन नियत है।’ गाला ने कहा।

‘तो चलो, आज ही तुम्हें पाठशाला पहुँचा दूँ। अब यहाँ रहना ठीक भी नहीं है।’

‘अच्छी बात है। वह सन्दूक लेते आओ।’

नये अपना कम्बल उठाकर चला और गाला चुपचाप सुनहली किरणों को खारी के जल में बुझती हुई देख रही थी-दूर पर एक सियार दौड़ा हुआ जा रहा था। उस निर्जर स्थान में पवन रुक-रुककर बह रहा था। खारी बहुत धीरे-धीरे अपने करुण प्रवाह में बहती जाती थी, पर जैसे उसका जल स्थिर हो-कहीं से आता-जाता न हो। वह स्थिरता और स्पन्दनहीन विवशता गाला को घेरकर मुस्कराने लगी। वह सोच रही थी-शैशव से परिचित इस जंगली भूखंड को छोड़ने की बात।

गाला के सामने अन्धकार ने परदा खींच दिया। तब वह घबराकर उठ खड़ी हुई। इतने में कम्बल और सन्दूक सिर पर धरे नये वहाँ पहुँचा। गाला ने कहा, ‘तुम आ गये।’

‘हाँ चलो, बहुत दूर चलना है।’

दोनों चले, भालू भी पीछे-पीछे था।

कंकाल – जयशंकर प्रसाद – 6

जज के साथ पाँच जूरी बैठे थे। सरकारी वकील ने अपना वक्तव्य समाप्त करते हुए कहा, ‘जूरी सज्जनों से मेरी प्रार्थना है कि अपना मत देते हुए वे इस बात का ध्यान रखें कि वे लोग हत्या जैसे एक भीषण अपराध पर अपना मत दे रहे हैं। स्त्री साधारणतः मनुष्य की दया को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है, फिर जबकि उसके साथ उसकी स्त्री जाति की मर्यादा का प्रश्न भी लग जाता हो। तब यह बड़े साहस का काम है कि न्याय की पूरी सहायता हो। समाज में हत्या का रोग बहुत जल्द फैल सकता है, यदि अपराधी इस…’

जज ने वक्तव्य समाप्त करके का संकेत किया। सरकारी वकील ने केवल-‘अच्छा तो आप लोग शान्त हृदय से अपराध के गुरुत्व को देखकर न्याय करने में सहायता दीजिए।’ कहकर वक्तव्य समाप्त किया।

जज ने जूरियों को सम्बोधन करके कहा, ‘सज्जनो, यह एक हत्या का अभियोग है, जिसमें नवाब नाम का मनुष्य वृंदावन के समीप यमुना के किनारे मारा गया। इसमें तो संदेह नहीं कि वह मारा गया-डॉक्टर कहता है कि गला घोंटने और सिर फोड़ने से उसकी मृत्यु हुई। गवाह कहते हैं-जब हम लोगों ने देखा तो यह यमुना उस मृत व्यक्ति पर झुकी हुई थी; पर यह कोई नहीं कहता कि मैंने उसे मारते हुए देखा। यमुना कहती है कि स्त्री की मर्यादा नष्ट करने जाकर नवाब मारा गया; पर सरकारी वकील का कहना बिल्कुल निरर्थक है कि उसने मारना स्वीकार किया है। यमुना के वाक्यों से यह अर्थ कदापि नहीं निकाला जा सकता। इस विशेष बात को समझा देना आवश्यक था। यह दूसरी बात है कि वह स्त्री अपनी मर्यादा के लिए हत्या कर सकती है या नहीं; यद्यपि नियम इसके लिए बहुत स्पस्ट है। विचार करते समय आप लोग इन बातों का ध्यान रखेंगे। अब आप लोग एकान्त में जा सकते हैं।’

जूरी लोग एक कमरे में जा बैठे। यमुना निर्भीक होकर जज का मुँह देख रही थी। न्यायालय में दर्शक बहुत थे। उस भीड़ में मंगल, निरंजन इत्यादि भी थे। सहसा द्वार पर हलचल हुई, कोई भीतर घुसना चाहता था, रक्षियों ने शान्ति की घोषणा की। जूरी लोग आये।

दो ने कहा, ‘हम लोग यमुना को हत्या का अपराधी समझते हैं; पर दण्ड इसे कम दिया जाय।’ जज ने मुस्करा दिया।

अन्य तीन सज्जनों ने कहा, ‘प्रमाण अभियोग के लिए पर्याप्त नहीं हैं।’ अभी वे पूरी कहने नहीं पाये थे कि एक लम्बा, चौड़ा, दाड़ी-मूँछ वाला युवक, कम्बल बगल में दबाये, कितने ही को धक्का देता जज की कुरसी की बगल वाली खिड़की से कब घुस आया, यह किसी ने नहीं देखा। वह सरकारी वकील के पास आकर बोला, ‘मै हूँ हत्यारा! मुझको फाँसी दो। यह स्त्री निरपराध है।’

जज ने चपरासियों की ओर देखा। पेशकार ने कहा, ‘पागलों को भी तुम नहीं रोकते! ऊँघते रहते हो क्या

इसी गड़बड़ी में बाकी तीन जूरी सज्जनों ने अपना वक्तव्य पूरा किया, ‘हम लोग यमुना को निरपराध समझते हैं।’

उधर वह पागल भीड़ में से निकला जा रहा था। उसका कुत्ता भौंककर हल्ला मचा रहा था। इसी बीच में जज ने कहा, ‘हम तीन जूरियों से सहमत होते हुए यमुना को छोड़ देते हैं।’

एक हलचल मच गयी। मंगल और निरंजन-जो अब तक दुश्चिन्ता और स्नेह से कमरे से बाहर थे-यमुना के समीप आये। वह रोने लगी। उसने मंगल से कहा, ‘मैं नहीं चल सकती।’ मंगल मन-ही-मन कट गया। निरंजन उसे सान्तवा देकर आश्रम तक ले आया

एक वकील साहब कहने लगे, ‘क्यों जी, मैंने तो समझा था कि पागलपन भी एक दिल्लगी है; यह तो प्राणों से भी खिलवाड़ है।’

दूसरे ने कहा, ‘यह भी तो पागलपन है, जो पागल से भी बुद्धिमानी की आशा तुम रखते हो!’

दोनों वकील मित्र हँसने लगे।

पाठकों को कुतूहल होगा कि बाथम न अदालत में उपस्थित होकर क्यों नहीं इस हत्या पर प्रकाश डाला। परन्तु वह नहीं चाहता था कि उस हत्या के अवसर पर उसका रहना तथा उक्त घटना से उसका सम्पर्क सब लोग जान लें। उसका हृदय घण्टी के भाग जाने से और भी लज्जित हो गया था। अब वह अपने को इस सम्बन्ध में बदनाम होने से बचाना चाहता था। वह प्रचारक बन गया था।

इधर आश्रम में लतिका, सरला, घण्टी और नन्दो के साथ यमुना भी रहने लगी, पर यमुना अधिकतर कृष्णशरण की सेवा में रहती। उसकी दिनचर्या बड़ी नियमित थी। वह चाची से भी नहीं बोलती और निरंजन उसके पास ही आने में संकुचित होता। भंडारीजी का तो साहस ही उसका सामना करने का न हुआ।

पाठक आश्चर्य करेंगे कि घटना-सूत्र तथा सम्बन्ध में इतने समीप के मनुष्य एक होकर भी चुपचाप कैसे रहे

लतिका और घण्टी का मनोमालिन्य न रहा, क्योंकि अब बाथम से दोनों का कोई सम्बन्ध न रहा। नन्दो चाची ने यमुना के साथ उपकार भी किया था और अन्याय भी। यमुना के हृदय में मंगल के व्यवहार की इतनी तीव्रता थी कि उसके सामने और किसी के अत्याचार प्रस्फुटित हो नहीं पाते। वह अपने दुःख-सुख में किसी को साझीदार बनाने की चेष्टा न करती, निंरजन सोचता-मैं बैरागी हूँ। मेरे शरीर से सम्बन्ध रखने वाले प्रत्येक परमाणुओं को मेरे दुष्कर्म के ताप से दग्ध होना विधाता का अमोध विधान है, यदि मैं कुछ भी कहती हूँ, तो मेरा ठिकाना नहीं, इसलिए जो हुआ, सो हुआ, अब इसमें चुप रह जाना ही अच्छा है। मंगल और यमुना आप ही अपना रहस्य खोलें, मुझे क्या पड़ी है।

इसी तरह से निरंजन, नन्दो और मंगल का मौन भय यमुना के अदृश्य अन्धकार का सृजन कर रहा था। मंगल का सार्वजनिक उत्साह यमुना के सामने अपराधी हो रहा था। वह अपने मन को सांत्वना देता कि इसमें मेरा क्या अन्याय है-जब उपयुक्त अवसर पर मैंने अपना अपराध स्वीकार करना चाहा, तभी तो यमुना ने मुझे वर्जित किया तथा अपना और मेरा पथ भिन्न-भिन्न कर दिया। इसके हृदय में विजय के प्रति इतनी सहानुभूति कि उसके लिए फाँसी पर चढ़ना स्वीकार! यमुना से अब मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। वह उद्विग्न हो उठता। सरला दूर से उसके उद्विग्न मुख को देख रही थी। उसने पास आकर कहा, ‘अहा, तुम इन दिनों अधिक परिश्रम करते-करते थक गये हो।’

‘नहीं माता, सेवक को विश्राम कहाँ अभी तो आप लोगों के संघ-प्रवेश का उत्सव जब तक समाप्त नहीं हो जाता, हमको छुट्टी कहाँ।’ सरला के हृदय में स्नेह का संचार देखकर मंगल का हृदय भी स्निग्ध हो चला, उसको बहुत दिनों पर इतने सहानुभूतिसूचक शब्द पुरस्कार में मिले थे।

मंगल इधर लगातार कई दिन धूप में परिश्रम करता रहा। आज उसकी आँखें लाल हो रही थीं। दालान में पड़ी चौकी पर जाकर लेट रहा। ज्वर का आतंक उसके ऊपर छा गया था। वह अपने मन में सोच रहा था कि बहुत दिन हुए बीमार पड़े-काम करके रोगी हो जाना भी एक विश्राम है, चलो कुछ दिन छुट्टी ही सही। फिर वह सोचता कि मुझे बीमार होने की आवश्यकता नहीं; एक घूँट पानी तक को कोई नहीं पूछेगा। न भाई, यह सुख दूर रहे। पर उसके अस्वीकार करने से क्या सुख न आते उसे ज्वर आ ही गया, वह एक कोने में पड़ा रहा।

निरंजन उत्सव की तैयारी में व्यस्त था। मंगल के रोगी हो जाने से सबका छक्का छूट गया। कृष्णशरण जी ने कहा, ‘तब तक संघ के लोगों के उपदेश के लिए मैं राम-कथा कहूँगा और सर्वसाधारण के लिए प्रदर्शन तो जब मंगल स्वस्थ होगा, किया जायेगा।’

बहुत-से लोग बाहर से भी आ गये थे। संघ में बड़ी चहल-पहल थी; पर मंगल ज्वर में अचेत रहता। केवल सरला उसे देखती थी। आज तीसरा दिन था, ज्वर में तीव्र दाह था, अधिक वेदना से सिर में पीड़ा थी; लतिका ने कुछ समय के लिए छुट्टी देकर सरला को स्नान करने के लिए भेज दिया था। सबेरे की धूप जंगले के भीतर जा रही थी। उसके प्रकाश में मंगल की रक्तपूर्ण आँखें भीषण लाली से चमक उठतीं। मंगल ने कहा, ‘गाला! लड़कियों की पढ़ाई पर…’

लतिका पास बैठी थी। उसने समझ लिया कि ज्वर की भीषणता में मंगल प्रलाप कर रहा है। वह घबरा उठी। सरला इतने में स्नान करके आ चुकी थी। लतिका ने प्रलाप की सूचना दी। सरला उसे वहीं रहने के लिए कहकर गोस्वामीजी के पास गयी। उसने कहा, ‘महाराज! मंगल का ज्वर भयानक हो गया है। वह गाला का नाम लेकर चौंक उठता है।’

गोस्वामीजी कुछ चिन्तित हुए। कुछ विचारकर उन्होंने कहा, ‘सरला, घबराने की कोई बात नहीं, मंगल शीघ्र अच्छा हो जायेगा। मैं गाला को बुलवाता हूँ।’

गोस्वामीजी की आज्ञा से एक छात्र उनका पत्र लेकर सीकरी गया। दूसरे दिन गाला उसके साथ आ गयी। यमुना ने उसे देखा। वह मंगल से दूर रहती। फिर भी न जाने क्यों उसका हृदय कचोट उठता; पर वह लाचार थी।

गाला और सरला कमर कसकर मंगल की सेवा करने लगीं। वैद्य ने देखकर कहा, ‘अभी पाँच दिन में यह ज्वर उतरेगा। बीच में सावधानी की आवश्यकता है। कुछ चिन्ता नहीं।’ यमुना सुन रही थी, वह कुछ निश्चिन्त हुई।

इधर संघ में बहुत-से बाहरी मनुष्य भी आ गये थे। उन लोगों के लिए गोस्वामीजी राम-कथा कहने लगे थे।

आज मंगल के ज्वर का वेग अत्यन्त भयानक था। गाला पास बैठी हुई मंगल के मुख पर पसीने की बूँदों को कपड़े से पोंछ रही थी। बार-बार प्यास से मंगल का मुँह सूखता था। वैद्यजी ने कहा था, ‘आज की रात बीत जाने पर यह निश्चय ही अच्छा हो जायेगा। गाला की आँखों में बेबसी और निराशा नाच रही थी। सरला ने दूर से यह सब देखा। अभी रात आरम्भ हुई थी। अन्धकार ने संघ में लगे हुए विशाल वृक्षों पर अपना दुर्ग बना लिया था। सरला का मन व्यथित हो उठा। वह धीरे-धीरे एक बार कृष्ण की प्रतिमा के सम्मुख आयी। उसने प्रार्थना की। वही सरला, जिसने एक दिन कहा था-भगवान् के दुःख दान को आँचल पसारकर लूँगी-आज मंगल की प्राणभिक्षा के लिए आँचल पसारने लगी। यह वंगाल का गर्व था, जिसके पास कुछ बचा ही नहीं। वह किसकी रक्षा चाहती! सरला के पास तब क्या था, जो वह भगवान् के दुःख दान से हिचकती। हताश जीवन तो साहसिक बन ही जाता है; परन्तु आज उसे कथा सुनकर विश्वास हो गया कि विपत्ति में भगवान् सहायता के लिए अवतार लेते हैं, आते हैं भारतीयों के उद्धार के लिए। आह, मानव-हृदय की स्नेह-दुर्बलता कितना महत्त्व रखती है। यही तो उसके यांत्रिक जीवन की ऐसी शक्ति है। प्रतिमा निश्चल रही, तब भी उसका हृदय आशापूर्ण था। वह खोजने लगी-कोई मनुष्य मिलता, कोई देवता अमृत-पात्र मेरे हाथों में रख जाता। मंगल! मंगल! कहती हुई वह आश्रम के बाहर निकल पड़ी। उसे विश्वास था कि कोई दैवी सहायता मुझे अचानक अवश्य मिल जायेगी!

यदि मंगल जी उठता तो गाला कितना प्रसन्न होती-यही बड़बड़ाती हुई यमुना के तट की ओर बढ़ने लगी। अन्धकार में पथ दिखाई न देता; पर वह चली जा रही थी।

यमुना के पुलिन में नैश अन्धकार बिखर रहा था। तारों की सुन्दर पंक्ति झलमलाती हुई अनन्त में जैसे घूम रही थी। उनके आलोक में यमुना का स्थिर गम्भीर प्रवाह जैसे अपनी करुणा में डूब रहा था। सरला ने देखा-एक व्यक्ति कम्बल ओढ़े, यमुना की ओर मुँह किये बैठा है; जैसे किसी योगी की अचल समाधि लगी है।

सरला कहने लगी, ‘हे यमुना माता! मंगल का कल्याण करो और उसे जीवित करके गाला को भी प्राणदान दो! माता, आज की रात बड़ी भयानक है-दुहाई भगवान की।’

वह बैठा हुआ कम्बल वाला विचलित हो उठा। उसने बड़े गम्भीर स्वर में पूछा, ‘क्या मंगलदेव रुग्ण हैं?’

प्रार्थिनी और व्याकुल सरला ने कहा, ‘हाँ महाराज, यह किसी का बच्चा है, उसके स्नेह का धन है, उसी की कल्याण-कामना कर रही हूँ।’

‘और तुम्हारा नाम सरला है। तुम ईसाई के घर पहले रहती थीं न?’ धीरे स्वर से प्रश्न हुआ।

‘हाँ योगिराज! आप तो अन्तर्यामी हैं।’

उस व्यक्ति ने टटोलकर कोई वस्तु निकालकर सरला की ओर फेंक दी। सरला ने देखा, वह एक यंत्र है। उसने कहा, ‘बड़ी दया महाराज! तो इसे ले जाकर बाँध दूँगी न

वह फिर कुछ न बोला, जैसे समाधि लग गयी हो, सरला ने अधिक छेड़ना उचित न समझा। मन-ही-मन नमस्कार करती हुई प्रसन्नता से आश्रम की ओर लौट पड़ी।

वह अपनी कोठरी में आकर उस यंत्र के धागे को पिरोकर मंगल के प्रकोष्ठ के पास गयी। उसने सुना, कोई कह रहा है, ‘बहन गाला, तुम थक गयी होगी, लाओ मैं कुछ सहायता कर दूँ।’

उत्तर मिला, ‘नहीं यमुना बहिन! मैं तो अभी बैठी हुई हूँ, फिर आवश्यकता होगी तो बुलाऊँगी।’

वह स्त्री लौटकर निकल गयी। सरला भीतर घुसी। उसने वह यंत्र मंगल के गले में बाँध दिया और मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना की। वहीं बैठी रही। दोनों ने रात भर बड़े यत्न से सेवा की।

प्रभात होने लगा। बड़े सन्देह से सरला ने उस प्रभात के आलोक को देखा। दीप की ज्योति मलिन हो चली। रोगी इस समय निद्रित था। जब प्रकाश उस कोठरी में घुस आया, तब गाला, सरला और मंगल तीनों नींद में सो रहे थे।

जब कथा समाप्त करके सब लोगों के चले जाने पर गोस्वामीजी उठकर मंगलदेव के पास आये, तब गाला बैठी पंखा झल रही थी। उन्हें देखकर वह संकोच से उठ खड़ी हुई। गोस्वामीजी ने कहा, ‘सेवा सबसे कठिन व्रत है देवि! तुम अपना काम करो। हाँ मंगल! तुम अब अच्छे हो न!’

कम्पित कंठ से मंगल ने कहा, ‘हाँ, गुरुदेव!’

‘अब तुम्हारा अभ्युदय-काल है, घबराना मत।’ कहकर गोस्वामीजी चले गये।

दीपक जल गया। आज अभी तक सरला नहीं आयी। गाला को बैठे हुए बहुत विलम्ब हुआ। मंगल ने कहा, ‘जाओ गाला, संध्या हुई; हाथ-मुँह तो धो लो, तुम्हारे इस अथक परिश्रम से मैं कैसे उद्धार पाऊँगा।’

गाला लज्जित हुई। इतने सम्भ्रान्त मनुष्य और स्त्रियों के बीच आकर कानन-वासिनी ने लज्जा सीख ली थी। वह अपने स्त्रीत्व का अनुभव कर रही थी। उसके मुख पर विजय की मुस्कराहट थी। उसने कहा, ‘अभी माँ जी नहीं आयीं, उन्हें बुला लाऊँ!’ कहकर सरला को खोजने के लिए वह चली।

सरला मौलसिरी के नीचे बैठी सोच रही थी-जिन्हें लोग भगवान कहते हैं, उन्हें भी माता की गोद से निर्वासित होना पड़ता है, दशरथ ने तो अपना अपराध समझकर प्राण-त्याग दिया; परन्तु कौशल्या कठोर होकर जीती रही-जीती रही श्रीराम का मुख देखने के लिए, क्या मेरा दिन भी लौटेगा क्या मैं इसी से अब तक प्राण न दे सकी!

गाला ने सहसा आकर कहा, ‘चलिये।’

दोनो मंगल की कोठरी की ओर चलीं।

मंगल के गले के नीचे वह यंत्र गड़ रहा था। उसने तकिया से खींचकर उसे बाहर किया। मंगल ने देखा कि वह उसी का पुराना यंत्र है। वह आश्चर्य से पसीने-पसीने हो गया। दीप के आलोक में उसे वह देख ही रहा था कि सरला भीतर आयी। सरला को बिना देखे ही अपने कुतूहल में उसने प्रश्न किया, ‘यह मेरा यंत्र इतने दिनों पर कौन लाकर पहना गया है, आश्चर्य है!’

सरला ने उत्कण्ठा से पूछा, ‘तुम्हारा यंत्र कैसा है बेटा! यह तो मैं एक साधू से लायी हूँ।’

मंगल ने सरल आँखों से उसकी ओर देखकर कहा, ‘माँ जी, यह मेरा ही यंत्र है, मैं इसे बाल्यकाल में पहना करता था। जब यह खो गया, तभी से दुःख पा रहा हूँ। आश्चर्य है, इतने दिनों पर यह आपको कैसे मिल गया?’

सरला के धैर्य का बाँध टूट पड़ा। उसने यंत्र को हाथ में लेकर देखा-वही त्रिकोण यंत्र। वह चिल्ला उठी, ‘मेरे खोये हुए निधि! मेरे लाल! यह दिन देखना किस पुण्य का फल है मेरे भगवान!’

मंगल तो आश्चर्य चकित था। सब साहस बटोरकर उसने कहा, ‘तो क्या सचमुच तुम्हीं मेरी माँ हो।’

तीनों के आनन्दाश्रु बाँध तोड़कर बहने लगे।

सरला ने गाला के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘बेटी! तेरे भाग्य से आज मुझे मेरा खोया हुआ धन मिल गया!’

गाला गड़ी जा रही थी।

मंगल एक आनन्दप्रद कुतूहल से पुलकित हो उठा। उसने सरला के पैर पकड़कर कहा, ‘मुझे तुमने क्यों छोड़ दिया था माँ

उसकी भावनाओं की सीमा न थी। कभी वह जीवन-भर के हिसाब को बराबर हुआ समझता, कभी उसे भान होता कि आज के संसार में मेरा जीवन प्रारम्भ हुआ है।

सरला ने कहा, ‘मैं कितनी आशा में थी, यह तुम क्या जानोगे। तुमने तो अपनी माता के जीवित रहने की कल्पना भी न की होगी। पर भगवान की दया पर मेरा विश्वास था और उसने मेरी लाज रख ली।’

गाला भी उस हर्ष से वंचित न रही। उसने भी बहुत दिनों बाद अपनी हँसी को लौटाया। भण्डार में बैठी हुई नन्दो ने भी इस सम्वाद को सुना, वह चुपचाप रही। घण्टी भी स्तब्ध होकर अपनी माता के साथ उसके काम में हाथ बँटाने लगी।

कंकाल – जयशंकर प्रसाद – 7

आलोक-प्रार्थिनी अपने कुटीर में दीपक बुझाकर बैठी रही। उसे आशा थी कि वातायन और द्वारों से राशि-राशि प्रभात का धवल आनन्द उसके प्रकोष्ठ में भर जायेगा; पर जब समय आया, किरणें फूटी, तब उसने अपने वातायनों, झरोखे और द्वारों को रुद्ध कर दिया। आँखें भी बन्द कर लीं। आलोक कहाँ से आये। वह चुपचाप पड़ी थी। उसके जीवन की अनन्त रजनी उसके चारों ओर घिरी थी।

लतिका ने जाकर द्वार खटखटाया। उद्धार की आशा में आज संघ भर में उत्साह था। यमुना हँसने की चेष्टा करती हुई बाहर आयी। लतिका ने कहा, ‘चलोगी बहन यमुना, स्नान करने

‘चलूँगी बहन, धोती ले लूँ।’

दोनों आश्रम से बाहर हुईं। चलते-चलते लतिका ने कहा, ‘बहिन, सरला का दिन भगवान ने जैसे लौटाया, वैसे सबका लौटे। अहा, पचीसों बरस पर किसका लड़का लौटकर गोद में आया है।’

‘सरला के धैर्य का फल है बहन। परन्तु सबका दिन लौटे, ऐसी तो भगवान की रचना नहीं देखी जाती। बहुत का दिन कभी न लौटने के लिए चला जाता है। विशेषकर स्त्रियों का मेरी रानी। जब मैं स्त्रियों के ऊपर दया दिखाने का उत्साह पुरुषों में देखती हूँ, तो जैसे कट जाती हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि वह सब कोलाहल, स्त्री-जाति की लज्जा की मेघमाला है, उनकी असहाय परिस्थिति का व्यंग्य-उपहास है।’ यमुना ने कहा।

लतिका ने आश्चर्य से आँखें बड़ी करते हुए कहा, ‘सच कहती हो बहन! जहाँ स्वतन्त्रता नहीं है, वहाँ पराधीनता का आन्दोलन है; और जहाँ ये सब माने हुए नियम हैं, वहाँ कौन सी अच्छी दशा है। यह झूठ है कि किसी विशेष समाज में स्त्रियों को कुछ विशेष सुविधा है। हाय-हाय, पुरुष यह नहीं जानते कि स्नेहमयी रमणी सुविधा नहीं चाहती, वह हृदय चाहती है; पर मन इतना भिन्न उपकरणों से बना हुआ है कि समझौते पर ही संसार के स्त्री-पुरुषों का व्यवहार चलता हुआ दिखाई देता है। इसका समाधान करने के लिए कोई नियम या संस्कृति असमर्थ है।’

‘मुझे ही देखो न, मैं ईसाई-समाज की स्वतन्त्रता में अपने को सुरक्षित समझती थी; पर भला मेरा धन रहा। तभी तो हम स्त्रियों के भाग्य में लिखा है कि उड़कर भागते हुए पक्षी के पीछे चारा और पानी से भरा हुआ पिंजरा लिए घूमती रहें।’

यमुना ने कहा, ‘कोई समाज और धर्म स्त्रियों का नहीं बहन! सब पुरुषों के हैं। सब हृदय को कुचलने वाले क्रूर हैं। फिर भी समझती हूँ कि स्त्रियों का एक धर्म है, वह है आघात सहने की क्षमता रखना। दुर्दैव के विधान ने उनके लिए यही पूर्णता बना दी है। यह उनकी रचना है।’

दूर पर नन्दो और घण्टी जाती हुई दिखाई पड़ीं। लतिका, यमुना के साथ दोनों के पास जा पहुँची।

स्नान करते हुए घण्टी और लतिका एकत्र हो गयीं, और उसी तरह चाची और यमुना का एक जुटाव हुआ। यह आकस्मिक था। घण्टी ने अंजलि में जल लेकर लतिका से कहा, ‘बहन! मैं अपराधिनी हूँ, मुझे क्षमा करोगी?’

लतिका ने कहा, ‘बहन! हम लोगों का अपराध स्वयं दूर चला गया है। यह तो मैं जान गयी हूँ कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। हम दोनों एक ही स्थान पर पहुँचने वाली थीं; पर सम्भवतः थककर दोनों ही लौट आयीं। कोई पहुँच जाता, तो द्वेष की सम्भावना थी, ऐसा ही तो संसार का नियम है; पर अब तो हम दोनों एक-दूसरे को समझा सकती हैं, सन्तोष कर सकती हैं।’

घण्टी ने कहा, ‘दूसरा उपाय नहीं है बहन। तो तुम मुझे क्षमा कर दो। आज से मुझे बहन कहकर बुलाओगी न।’

लतिका ने कहा, ‘नारी-हृदय गल-गलकर आँखों की राह से उसकी अंजलि के यमुना-जल में मिल रहा है।’ वह अपने को रोक न सकी, लतिका और घण्टी गले से लगकर रोने लगीं। लतिका ने कहा, ‘आज से दुख में, सुख में हम लोग कभी साथ न छोड़ेंगी बहन! संसार में गला बाँधकर जीवन बिताऊँगी, यमुना साक्षी है।’

दूर यमुना और नन्दो चाची ने इस दृश्य को देखा। नन्दो का मन न जाने किन भावों से भर गया। मानो जन्म-भर की कठोरता तीव्र भाप लगने से बरफ के समान गलने लगी हो। उसने यमुना से रोते हुए कहा, ‘यमुना, नहीं-नहीं, बेटी तारा! मुझे भी क्षमा कर दे। मैंने जीवन भर बहुत सी बातें बुरी की हैं; पर जो कठोरता तेरे साथ हुई है, वह नरक की आग से भी तीव्रदाह उत्पन्न कर रही है। बेटी! मैं मंगल को उसी समय पहचान गयी, जब उसने अंगरेज से मेरी घण्टी को छुड़ाया था; पर वह न पहचान सका, उसे वे बातें भूल गयी थीं, तिस पर मेरे साथ मेरी बेटी थी, जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह छलिया मंगल आज दूसरी स्त्री से ब्याह करने की सुख चिंता में निमग्न है। मैं जल उठती हूँ बेटी! मैं उसका सब भण्डा फोड़ देना चाहती थी; पर तुझे भी यहीं चुपचाप देखकर मैं कुछ न कर सकी। हाय रे पुरुष!’

‘नहीं चाची। अब वह दिन चाहे लौट आये, पर वह हृदय कहाँ से आवेगा। मंगल को दुःख पहुँचाकर आघात दे सकूँगी, अपने लिए सुख कहाँ से लाऊँगी। चाची। तुम मेरे दुःखों की साक्षी हो, मैंने केवल एक अपराध किया है-वह यही कि प्रेम करते समय साक्षी को इकट्ठा नहीं करा लिया था; पर किया प्रेम। चाची यदि उसका यही पुरस्कार है, तो मैं उसे स्वीकार करती हूँ।’ यमुना ने कहा।

‘पुरुष कितना बड़ा ढोंगी है बेटी। वह हृदय के विरुद्ध ही तो जीभ से कहता है आश्चर्य है, उसे सत्य कहकर चिल्लाता है।’ उत्तेजित चाची ने कहा।

‘पर मैं एक उत्कट अपराध की अभियुक्त हूँ चाची। आह, मेरा पन्द्रह दिन का बच्चा। मैं कितनी निर्दयी हूँ। मैं उसी का तो फल भोग रही हूँ। मुझे किसी दूसरे ने ठोकर लगाई और मैंने दूसरे को ठुकराया। हाय! संसार अपराध करके इतना अपराध नहीं करता, जितना यह दूसरों को उपदेश देकर करता है। जो मंगल ने मुझसे किया, वही तो हृदय के टुकड़े से, अपने से कर चुकी हूँ। मैंने सोचा था कि फाँसी पर चढ़कर उसका प्रायश्चित्त कर सँकूगी, पर डूबकर बची-फाँसी से बची। हाय रे कठोर नारी-जीवन!! न जाने मेरे लाल को क्या हुआ?’

यमुना, नहीं-अब उसे तारा कहना चाहिए-रो रही थी। उसकी आँखों में जितनी करुण कालिमा थी, उतनी कालिन्दी में कहाँ!

चाची ने उसकी अश्रुधारा पोंछते हुए कहा, ‘बेटी! तुम्हारा लाल जीवित है, सुखी है!’

तारा चिल्ला पड़ी, उसने कहा, ‘सच कहती हो चाची?’

‘सच तारा! वह काशी के एक धनी श्रीचन्द्र और किशोरी बहू का दत्तक पुत्र है; मैंने उसे वहाँ दिया है। क्या इसके लिए तुम मुझे इसके लिए क्षमा करोगी बेटी?’

‘तुमने मुझे जिला लिया, आह! मेरी चाची, तुम मेरी उस जन्म की माता हो, अब मैं सुखी हूँ।’ वह जैसे एक क्षण के लिए पागल हो गयी थी। चाची के गले से लिपटकर रो उठी। वह रोना आनन्द का था।

चाची ने उसे सान्त्वना दी। इधर घण्टी और लतिका भी पास आ रही थीं। तारा ने धीरे से कहा, ‘मेरी विनती है, अभी इस बात को किसी से न कहना-यह मेरा ‘गुप्त धन’ है।’

चाची ने कहा, ‘यमुना साक्षी है।’

चारों के मुख पर प्रसन्नता थी। चारों ओर हृदय हल्का था। सब स्नान करके दूसरी बातें करती हुई आश्रम लौटीं। लतिका ने कहा, ‘अपनी संपत्ति संघ को देती हूँ। वह स्त्रियों की स्वयंसेविका की पाठशाला चलावे। मैं उसकी पहली छात्रा होऊँगी। और तुम घण्टी?’

घण्टी ने कहा, ‘मैं भी। बहन, स्त्रियों को स्वयं घर-घर जाकर अपनी दुखिया बहनों की सेवा करनी चाहिए। पुरुष उन्हें उतनी ही शिक्षा और ज्ञान देना चाहते हैं, जितना उनके स्वार्थ में बाधक न हो। घरों के भीतर अन्धकार है, धर्म के नाम पर ढोंग की पूजा है और शील तथा आचार के नाम पर रूढ़ियाँ हैं। बहनें अत्याचार के परदे में छिपायी गयी हैं; उनकी सेवा करूँगी। धात्री, उपदेशिका, धर्म-प्रचारिका, सहचारिणी बनकर उनकी सेवा करूँगी।’

सब प्रसन्न मन से आश्रम में पहुँच गयीं। नियत दिन आ गया, आज उत्सव का विराट् आयोजन है। संघ के प्रांगण में वितान तना है। चारों ओर प्रकाश है। बहुत से दर्शकों की भीड़ है।

गोस्वामी जी, निरंजन और मंगलदेव संघ की प्रतिमा के सामने बैठे हैं। एक ओर घण्टी, लतिका, गाला और सरला भी बैठी हैं। गोस्वामी जी ने शान्त वाणी में आज के उत्सव का उद्देश्य समझाया और कहा, ‘भारत, संघ के संगठन पर आप लोग देवनिंरजन जी का व्याख्यान दत्तचित्त होकर सुनें।’

निंरजन का व्याख्यान आरम्भ हुआ-

‘प्रत्येक समय में सम्पत्ति-अधिकार और विद्या के भिन्न देशों में जाति, वर्ण और ऊँच-नीच की सृष्टि की। जब आप लोग इसे ईश्वरकृत विभाग समझने लगते हैं, तब यह भूल जाते हैं कि इसमें ईश्वर का उतना सम्बन्ध नहीं, जितना उसकी विभूतियों का। कुछ दिनों तक उन विभूतियों का अधिकारी बने रहने पर मनुष्य के संसार भी वैसे ही बन जाते हैं, वह प्रमत्त हो जाता है। प्राकृतिक ईश्वरीय नियम, विभूतियों का दुरुपयोग देखकर विकास की चेष्टा करता है; यह कहलाती है उत्क्रान्ति। उस समय केन्द्रीभूत, विभूतियाँ मान-स्वार्थ के बन्धनों को तोड़कर समस्त के भूत हित बिखरना चाहती हैं। वह समदर्शी भगवान की क्रीड़ा है।

‘भारतवर्ष आज वर्णों और जातियों के बन्धन में जकड़कर कष्ट पा रहा है और दूसरों को कष्ट दे रहा है। यद्यपि अन्य देशों में भी इस प्रकार के समूह बन गये हैं; परन्तु यहाँ इसका भीषण रूप है। यह महत्त्व का संस्कार अधिक दिनों तक प्रभुत्व भोगकर खोखला हो गया है। दूसरों की उन्नति से उसे डाह होने लगा है। समाज अपना महत्त्व धारण करने की क्षमता तो खो चुका है, परन्तु व्यक्तियों का उन्नति का दल बनकर सामूहिक रूप से विरोध करने लगा है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी छूँछी महत्ता पर इतराता हुआ दूसरे का नीचा-अपने से छोटा-समझता है, जिससे सामाजिक विषमता का विषमय प्रभाव फैल रहा है।

‘अत्यन्त प्राचीनकाल में भी इस वर्ण-विद्वेष-ब्रह्म-क्षत्रं-संघर्ष का साक्षी रामायण है-

‘उस वर्ण-भेद के भयानक संघर्ष का यह इतिहास जानकर भी नित्य उसका पाठ करके भी भला हमारा देश कुछ समझता है नहीं, यह देश समझेगा भी नहीं। सज्जनो! वर्ण-भेद, सामाजिक जीवन का क्रियात्मक विभाग है। यह जनता के कल्याण के लिए बना; परन्तु द्वेष की सृष्टि में, दम्भ का मिथ्या गर्व उत्पन्न करने में वह अधिक सहायक हुआ है। जिस कल्याण-बुद्धि से इसका आरम्भ हुआ, वह न रहा, गुण कर्मानुसार वर्णों की स्थिति में नष्ट होकर आभिजात्य के अभिमान में परिणत हो गयी, उसके व्यक्तिगत परीक्षात्मक निर्वाचन के लिए, वर्णों के शुद्ध वर्गीकरण के लिए वर्तमान जातिवाद को मिटाना होगा-बल, विद्या और विभव की ऐसी सम्पत्ति किस हाड़-मांस के पुतले के भीतर ज्वालामुखी सी धधक उठेगी, कोई नहीं जानता। इसलिए वे व्यर्थ के विवाद हटाकर, उस दिव्य संस्कृति-आर्य मानव संस्कृति-की सेवा में लगना चाहिए। भगवान का स्मरण करके नारीजाति पर अत्याचार करने से विरत हो शबरी के सदृश अछूत न समझो। सर्वभूतहितरत होकार भगवान् के लिए सर्वस्व समर्पण करो, निर्भय रहो।

‘भगवान् की विभूतियों को समाज ने बाँट लिया है, परन्तु जब मैं स्वार्थियों को भगवान् पर भी अपना अधिकार जमाये देखता हूँ, तब मुझे हँसी आती है। और भी हँसी आती है-जब उस अधिकार की घोषणा करके दूसरों को वे छोटा, नीच और पतित ठहराते हैं। बहू-परिचारिणी जाबाला के पुत्र सत्यकाम को कुलपति ने ब्राह्मण स्वीकार किया था; किन्तु उत्पत्ति पतन और दुर्बलताओं के व्यग्ंय से मैं घबराता नहीं। जो दोषपूर्ण आँखों में पतित है, जो निसर्ग-दुर्बल है, उन्हें अवलम्ब देना भारत-संघ का उद्देश्य है। इसलिए इन स्त्रियों को भारत-संघ पुनः लौटाते हुए बड़ा सन्तोष होता है। इन लतिका देवी ने उनकी पूर्णता की शिक्षा के साथ वे इस योग्य बनायी जायेंगी कि घरों में, पर्दों में दीवारों के भीतर नारी-जाति के सुख, स्वास्थ्य और संयत स्वतन्त्रता की घोषणा करें, उन्हें सहायता पहुँचाएँ, जीवन के अनुभवों से अवगत करें। उनके उन्नति, सहानुभूति, क्रियात्मक प्रेरणा का प्रकाश फैलाएँ। हमारा देश इस सन्देश से-नवयुग के सन्देश से-स्वास्थ्य लाभ करे। इन आर्य ललनाओं का उत्साह सफल हो, यही भगवान् से प्रार्थना है। अब आप मंगलदेव का व्याख्यान सुनेंगे, वे नारीजाति के सम्मान पर कुछ कहेंगे।’

मंगलदेव ने कहना आरम्भ किया-

‘संसार मैं जितनी हलचल है, आन्दोलन हैं, वे सब मानवता की पुकार हैं। जननी अपने झगड़ालू कुटुम्ब में मेल कराने के लिए बुला रही है। उसके लिए हमें प्रस्तुत होना है। हम अलग न खड़े रहेंगे। यह समारोह उसी का समारम्भ है। इसलिए हमारे आन्दोलन व्यच्छेदक न हों।

‘एक बार फिर स्मरण करना चाहिए कि लोक एक है, ठीक उसी प्रकार जैसे श्रीकृष्ण ने कहा-अभिवक्त च भूतेष भिक्तकमिव च स्थित’-यह विभक्त होना कर्म के लिए है, चक्रप्रवर्तन को नियमित रखने के लिए है। समाज सेवा यज्ञ को प्रगतिशील करने के लिए है। जीवन व्यर्थ न करने के लिए, पाप की आयु, स्वार्थ का बोझ न उठाने के लिए हमें समाज के रचनात्मक कार्य में भीतरी सुधार लाना चाहिए। यह ठीक है कि सुधार का काम प्रतिकूल स्थिति में प्रारम्भ में होता है। सुधार सौन्दर्य का साधन है। सभ्यता सौन्दर्य की जिज्ञासा है। शारीरिक और आलंकारिक सौन्दर्य प्राथमिक है, चरम सौन्दर्य मानसिक सुधार का है। मानसिक सुधारों में सामूहिक भाव कार्य करते हैं। इसके लिए श्रम-विभाग है। हम अपने कर्तव्य को देखते हुए समाज की उन्नति करें, परन्तु संघर्ष को बचाते हुए। हम उन्नति करते-करते भौतिक ऐश्वर्य के टीले बन जायँ। हाँ, हमारी उन्नति फल-फूल बेचने वाले वृक्षों की-सी हो, जिनमें छाया मिलें, विश्राम मिले, शान्ति मिले।

‘मैंने पहले कहा है कि समाज-सुधार भी हो और संघर्ष से बचना भी चाहिए। बहुत से लोगों का यह विचार है कि सुधार और उन्नति में संघर्ष अनिवार्य है; परन्तु संघर्ष से बचने का उपाय है, वह है-आत्म-निरीक्षण। समाज के कामों में अतिवाद से बचाने के लिए यह उपयोगी हो सकता है। जहाँ समाज का शासन कठोरता से चलता है, वहाँ द्वेष और द्वन्द्व भी चलता है। शासन की उपयोगिता हम भूल जाते हैं, फिर शासन केवल शासन के लिए चलता रहता है। कहना नहीं होगा कि वर्तमान हिन्दू जाति और उसकी उपजातियाँ इसके उदाहरण हैं। सामाजिक कठोर दण्डों से वह छिन्न-भिन्न हो रही हैं, जर्जर हो रही हैं। समाज के प्रमुख लोगों को इस भूल को सुधारना पड़ेगा। व्यवस्थापक तन्त्रों की जननी, प्राचीन पंचायतें, नवीन समस्याएँ सहानुभूति के बदले द्वेष फैला रही हैं। उनके कठोर दण्ड से प्रतिहिंसा का भाव जगता है। हम लोग भूल जाते हैं कि मानव स्वभाव दुर्बलताओं से संगठित है।

‘दुर्बलता कहाँ से आती है? लोकापवाद से भयभीत होकर स्वभाव को पाप कहकर मान लेना एक प्राचीन रूढ़ि है। समाज को सुरक्षित रखने के लिए उससे संगठन में स्वाभाविक मनोवृत्तियों की सत्ता स्वीकार करनी होगी। सबके लिए एक पथ देना होगा। समस्त प्राकृतिक आकांक्षाओं की पूर्ति आपके आदर्श में होनी चाहिए। केवल रास्ता बन्द है-कह देने से काम नहीं चलेगा। लोकापवाद संसार का एक भय है, एक महान् अत्याचार है। आप लोग जानते होंगे कि श्रीरामचन्द्र ने भी लोकापवाद के सामने सिर झुका लिया। ‘लोकापवादी बलवाल्येन त्यक्ताहि मैथिली’ और इसे पूर्व काल के लोग मर्यादा कहते हैं, उनका मर्यादा पुरुषोत्तम नाम पड़ा। वह धर्म की मर्यादा न थी, वस्तुतः समाज-शासन की मर्यादा थी, जिसे सम्राट ने स्वीकार किया और अत्याचार सहन किया; परन्तु विवेकदृष्टि से विचारने पर देश, काल और समाज की संकीर्ण परिधियों में पले हुए सर्वसाधारण नियम-भंग अपराध या पाप कहकर न गिने जायें, क्योंकि प्रत्येक नियम अपने पूर्ववर्ती नियम के बाधक होते हैं। या उनकी अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए बनते ही रहते हैं। सीता-निर्वासन एक इतिहास विश्रुत महान् सामाजिक अत्याचार है, और ऐसा अत्याचार अपनी दुर्बल संगिनी स्त्रियों पर प्रत्येक जाति के पुरुषों ने किया है। किसी-किसी समाज में तो पाप के मूल में स्त्री का भी उल्लेख है और पुरुष निष्पाप है। यह भ्रांत मनोवृत्ति अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं के भीतर काम कर रही है, रामायण भी केवल राक्षस-वध का इतिहास नहीं है, किन्तु नारी-निर्यातन का सजीव इतिहास लिखकर वाल्मीकि ने स्त्रियों के अधिकार की घोषणा की है। रामायण में समाज के दो दृष्टिकोण हैं-निन्दक और वाल्मीकि के। दोनों निर्धन थे, एक बड़ा भारी उपकार कर सकता था और दूसरा एक पीड़ित आर्य ललना की सेवा कर सकता था। कहना न होगा कि उस युद्ध में कौन विजयी हुआ। सच्चे तपस्वी ब्राह्मण वाल्मीकि की विभूति संसार में आज भी महान् है। आज भी उस निन्दक को गाली मिलती है। परन्तु देखिये तो, आवश्यकता पड़ने पर हम-आप और निन्दकों से ऊँचे हो सकते हैं आज भी तो समाज वैसे लोगों से भरा पड़ा है-जो स्वयं मलिन रहने पर भी दूसरों की स्वच्छता को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए हैं।

‘हमें इन बुरे उपकरणों को दूर करना चाहिए। हम जितनी कठिनता से दूसरों को दबाये रखेंगे, उतनी ही हमारी कठिनता बढ़ती जायेगी। स्त्रीजाति के प्रति सम्मान करना सीखना चाहिए।

‘हम लोगों को अपना हृदय-द्वार और कार्यक्षेत्र विस्तृत करना चाहिए, मानव संस्कृति के प्रचार के लिए हम उत्तरदायी हैं। विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त और हर्षवर्धन का रक्त हम है संसार भारत के संदेश की आशा में है, हम उन्हें देने के उपयुक्त बनें-यही मेरी प्रार्थना है।’

आनन्द की करतल ध्वनि हुई। मंगलदेव बैठा। गोस्वामी जी ने उठकर कहा, ‘आज आप लोगों को एक और हर्ष-समाचार सुनाऊँगा। सुनाऊँगा ही नहीं, आप लोग उस आनन्द के साक्षी होंगे। मेरे शिष्य मंगलदेव का ब्रह्मचर्य की समाप्ति करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का शुभ मुहूर्त भी आज ही का है। यह कानन-वासिनी गूजर बालिका गाला अपने सत्साहस और दान से सीकरी में एक बालिका-विद्यालय चला रही है। इसमें मंगलदेव और गाला दोनों का हाथ है। मैं इन दोनों पवित्र हाथों को एक बंधन में बाँधता हूँ, जिसमें सम्मिलित शक्ति से ये लोग मानव-सेवा में अग्रसर हों और यह परिणय समाज के लिए आदर्श हो!’

कोलाहल मच गया, सब लोग गाला को देखने के लिए उत्सुक हुए। सलज्जा गाला गोस्वामी जी के संकेत से उठकर सामने आयी। कृष्णशरण ने प्रतिमा से दो माला लेकर दोनों को पहना दीं।

गाला और मंगलदेव ने चौंककर देखा, ‘पर उस भीड़ में कहने वाला न दिखाई पड़ा।’

भीड़ के पीछे कम्बल औढ़े, एक घनी दाढ़ी-मूँछ वाले युवक का कन्धा पकड़कर तारा ने कहा, ‘विजय बाबू! आप क्या प्राण देंगे। हटिये यहाँ से, अभी यह घटना टटकी है।’

‘नये, नहीं,’ विजय ने घूमकर कहा, ‘यमुना! प्राण तो बच ही गया; पर यह मनुष्य…’ तारा ने बात काटकर कहा, ‘बड़ा ढोंगी है, पाखण्डी है, यही न कहना चाहते हैं आप! होने दीजिए, आप संसार-भर के ठेकेदार नहीं, चलिए।’

तारा उसका हाथ पकड़कर अन्धकार की ओर ले चली।

कंकाल – जयशंकर प्रसाद – 9

किशोरी सन्तुष्ट न हो सकी। कुछ दिनों के लिए वह विजय को अवश्य भूल गयी थी; पर मोहन को दत्तक ले लेने से उसको एकदम भूल जाना असम्भव था। हाँ, उसकी स्मृति और भी उज्ज्वल हो चली। घर के एक-एक कोने उसकी कृतियों से अंकित थे। उन सबों ने मिलकर किशोरी की हँसी उड़ाना आरम्भ किया। एकांत में विजय का नाम लेकर वह रो उठती। उस समय उसके विवर्ण मुख को देखकर मोहन भी भयभीत हो जाता। धीरे-धीरे मोहन के प्यार की माया अपना हाथ किशोरी की ओर से खींचने लगी। किशोरी कटकटा उठती, पर उपाय क्या था, नित्य मनोवेदना से पीड़ित होकर उसने रोग का आश्रय लिया, औषधि होती थी रोग की, पर मन तो वैसे ही अस्वस्थ था। ज्वर ने उसके जर्जर शरीर में डेरा डाल दिया। विजय को भूलने की चेष्टा की थी। किसी सीमा तक वह सफल भी हुई; पर वह धोखा अधिक दिन तक नहीं चल सका।

मनुष्य दूसरे को धोखा दे सकता है, क्योंकि उससे सम्बन्ध कुछ ही समय के लिए होता है; पर अपने से, नित्य सहचर से, जो घर का सब कोना जानता है कब तक छिपेगा किशोरी चिर-रोगिणी हुई। एक दिन उसे एक पत्र मिला। वह खाट पर पड़ी हुई अपने रूखे हाथों से उसे खोलकर पढ़ने लगी-

‘किशोरी,

संसार इतना कठोर है कि वह क्षमा करना नहीं जानता और उसका सबसे बड़ा दंड है ‘आत्म दर्शन!’ अपनी दुर्बलता जब अपराधी की स्मृति बनकर डंक मारती है, तब उसे कितना उत्पीड़ामय होना पड़ता है। उसे तुम्हें क्या समझाऊँ, मेरा अनुमान है कि तुम भी उसे भोगकर जान सकी हो।

मनुष्य के पास तर्कों के समर्थन का अस्त्र है; पर कठोर सत्य अलग खड़ा उसकी विद्वत्तापूर्ण मूर्खता पर मुस्करा देता है। यह हँसी शूल-सी भयानक, ज्वाला से भी अधिक झुलसाने वाली होती है।

मेरा इतिहास…मैं लिखना नहीं चाहता। जीवन की कौन-सी घटना प्रधान है और बाकी सब पीछे-पीछे चलने वाली अनुचरी है बुद्धि बराबर उसे चेतना की लम्बी पंक्ति में पहचानने में असमर्थ है। कौन जानता है कि ईश्वर को खोजते-खोजते कब पिशाच मिल जाता है।

जगत् की एक जटिल समस्या है-स्त्री पुरुष का स्निग्ध मिलन, यदि तुम और श्रीचन्द्र एक मन-प्राण होकर निभा सकते किन्तु यह असम्भव था। इसके लिए समाज ने भिन्न-भिन्न समय और देशों में अनेक प्रकार की परीक्षाएँ कीं, किन्तु वह सफल न हो सका। रुचि मानव-प्रकृति, इतनी विभिन्न है कि वैसा युग्म-मिलन विरला होता है। मेरा विश्वास है कि कदापि न सफल होगा। स्वतन्त्र चुनाव, स्वयंबरा, यह सब सहायता नहीं दे सकते। इसका उपाय एकमात्र समझौता है, वही ब्याह है; परन्तु तुम लोग उसे विफल बना ही रहे थे कि मैं बीच में कूद पड़ा। मैं कहूँगा कि तुम लोग उसे व्यर्थ करना चाहते थे।

किशोरी! इतना तो निस्सन्देह है कि मैं तुमको पिशाच मिला, तुम्हारे आनन्दमय जीवन को नष्ट कर देने वाला, भारतवर्ष का एक साधु नामधारी हो-यह कितनी लज्जा की बात है। मेरे पास शास्त्रों का तर्क था, मैंने अपने कामों का समर्थन किया; पर तुम थीं असहाय अबला! आह, मैंने क्या किया?

और सबसे भयानक बात तो यह है कि मैं तो अपने विचारों में पवित्र था। पवित्र होने के लिए मेरे पास एक सिद्धान्त था। मैं समझता था कि धर्म से, ईश्वर से केवल हृदय का सम्बन्ध है; कुछ क्षणों तक उसकी मानसिक उपासना कर लेने से वह मिल जाता है। इन्द्रियों से, वासनाओं से उनका कोई सम्बन्ध नहीं; परन्तु हृदय तो इन्हीं संवेदनाओं से सुसंगठित है। किशोरी, तुम भी मेरे ही पथ पर चलती रही हो; पर रोगी शरीर में स्वस्थ हृदय कहाँ से आवेगा काली करतूतों से भगवान् का उज्ज्वल रूप कौन देख सकेगा?

तुमको स्मरण होगा कि मैंने एक दिन यमुना नाम की दासी को तुम्हारे यहाँ देवगृह में जाने के लिए रोक दिया था, उसे बिना जाने-समझे अपराधिनी मानकर! वाह रे दम्भ!

मैं सोचता हूँ कि अपराध करने में भी मैं उतना पतित नहीं था, जितना दूसरों को बिना जाने-समझे छोटा, नीच, अपराधी मान लेने में। पुण्य का सैकड़ों मन का धातु-निर्मित घण्टा बजाकर जो लोग अपनी ओर संसार का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं, वे यह नहीं जानते कि बहुत समीप अपने हृदय तक वह भीषण शब्द नहीं पहुँचता।

किशोरी! मैंने खोजकर देखा कि मैंने जिसको सबसे बड़ा अपराधी समझा था, वही सबसे अधिक पवित्र है। वही यमुना-तुम्हारी दासी! तुम जानती होगी कि तुम्हारे अन्न से पलने के कारण, विजय के लिए फाँसी पर चढ़ने जा रही थी, और मैं-जिसे विजय का ममत्व था, दूर-दूर खड़ा धन-सहायता करना चाहता था।

भगवान् ने यमुना को भी बचाया, यद्यपि विजय का पता नहीं। हाँ, एक बात और सुनोगी, मैं आज इसे स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। हरद्वार वाली विधवा रामा को तुम न भूली होगी, वह तारा (यमुना) उसी के गर्भ से उत्पन्न हुई है। मैंने उसकी सहायता करनी चाही और लगा कि निकट भविष्य में उसकी सांसारिक स्थिति सुधार दूँ। इसलिए मैं भारत संघ में लगा, सार्वजनिक कामों में सहयोग करने लगा; परन्तु कहना न होगा कि इसमें मैंने बड़ा ढोंग पाया। गम्भीर मुद्रा का अभिनय करके अनेक रूपों में उन्हीं व्यक्तिगत दुराचारों को छिपाना पड़ता है, सामूहिक रूप से वही मनोवृत्ति काम करती हुई दिखायी पड़ती है। संघों में, समाजों में मेरी श्रद्धा न रही। मैं विश्वास करने लगा उस श्रुतिवाणी में कि देवता जो अप्रत्यक्ष है, मानव-बुद्धि से दूर ऊपर है, सत्य है और मनुष्य अनृत है। चेष्टा करके भी उस सत्य को प्राप्त करेगा। उस मनुष्य को मैं कई जन्मों तक केवल नमस्कार करके अपने को कृतकृत्य समझूँगा। उस मेरे संघ में लगने का मूल कारण वही यमुना थी। केवल धर्माचरण ही न था, इसे स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं; परन्तु वह विजय के समान ही तो उच्छृंखल है, वह अभिमानी चली गयी। मैं सोचता हूँ कि मैंने अपने दोनों को खो दिया। ‘अपने दोंनो पर’-तुम हँसोगी, किन्तु वे चाहे मेरे न हों, तब भी मुझे शंका हो रही है कि तारा की माता से मेरा अवैध सम्बन्ध अपने को अलग नहीं रख सकता।

मैंने भगवान् की ओर से मुँह मोड़कर मिट्टी के खिलौने में मन लगाया था। वे ही मेरी ओर देखकर, मुस्कुराते हुए त्याग का परिचय देकर चले गये और मैं कुछ टुकड़ों को, चीथड़ों को सम्हालने-सुलझाने में व्यस्त बैठा रहा।

किशोरी! सुना है कि सब छीन लेते हैं भगवान् मनुष्य से, ठीक उसी प्रकार जैसे पिता खिलवाड़ी लड़के के हाथ से खिलौना! जिससे वह पढ़ने-लिखने में मन लगाये। मैं अब यही समझता हूँ कि यह परमपिता का मेरी ओर संकेत है।

हो या न हो, पर मैं जानता हूँ कि उसमें क्षमा की क्षमता है, मेरे हृदय की प्यास-ओफ! कितनी भीषण है-वह अनन्त तृष्णा! संसार के कितने ही कीचड़ों पर लहराने वाली जल की पतली तहों में शूकरों की तरह लोट चुकी है! पर लोहार की तपाई हुई छुरी जैसे सान रखने के लिए बुझाई जाती हो, वैसे ही मेरी प्यास बुझकर भी तीखी होती गयी।

जो लोग पुनर्जन्म मानते हैं, जो लोग भगवान् को मानते हैं, वे पाप कर सकते हैं? नहीं, पर मैं देखता हूँ कि इन पर लम्बी-चौड़ी बातें करने वाले भी इससे मुक्त नहीं। मैं कितने जन्म लूँगा इस प्यास के लिए, मैं नहीं कह सकता। न भी लेना पड़ा, नहीं जानता! पर मैं विश्वास करने लगा हूँ कि भगवान् में क्षमा की क्षमता है।

मर्मव्यथा से व्याकुल होकर गोस्वामी कृष्णशरण से जब मैंने अपना सब समाचार सुनाया, तो उन्होंने बहुत देर तक चुप रहकर यही कहा-निरंजन, भगवान क्षमा करते हैं। मनुष्य भूलें करता है, इसका रहस्य है मनुष्य का परिमित ज्ञानाभास। सत्य इतना विराट् है कि हम क्षुद्र जीव व्यावहारिक रूप से उसे सम्पूर्ण ग्रहण करने में प्रायः असमर्थ प्रमाणित होते हैं। जिन्हें हम परम्परागत संस्कारों के प्रकाश में कलंकमय देखते हैं, वे ही शुद्ध ज्ञान में यदि सत्य ठहरें, तो मुझे आश्चर्य न होगा। तब भी मैं क्या करूँ यमुना के सहसा संघ से चले जाने पर नन्दो ने मुझसे कहा कि यमुना का मंगल से ब्याह होने वाला था। हरद्वार में मंगल ने उसके साथ विश्वासघात करके उसे छोड़ दिया। आज भला जब वही मंगल एक दूसरी औरत से ब्याह कर रहा है, तब वह क्यों न चली जाती मैं यमुना की दुर्दशा सुनकर काँप गया। मैं ही मंगल का दूसरा ब्याह कराने वाला हूँ। आह! मंगल का समाचार तो नन्दो ने सुना ही था, अब तुम्हारी भी कथा सुनकर मैं तो शंका करने लगा हूँ कि अनिच्छापूर्वक भी भारत-संघ की स्थापना में सहायक बनकर मैंने क्या किया-पुण्य या पाप प्राचीनकाल के इतने बड़े-बड़े संगठनों में जड़ता की दुर्बलता घुस गयी! फिर यह प्रयास कितने बल पर है वाह रे मनुष्य! तेरे विचार कितने निस्सबल हैं, कितने दुर्बल हैं! मैं भी जानता हूँ इसी को विचारने वाली एकान्त में! और तुमसे मैं केवल यही कहूँगा कि भगवान् पर विश्वास और प्रेम की मात्रा बढ़ाती रहो।

किशोरी! न्याय और दण्ड देने का ढकोसला तो मनुष्य भी कर सकता है; पर क्षमा में भगवान् की शक्ति है। उसकी सत्ता है, महत्ता है, सम्भव है कि इसीलिए सबसे क्षमा के लिए यह महाप्रलय करता हो।

तो किशोरी! उसी महाप्रलय की आशा में मैं भी किसी निर्जन कोने में जाता हूँ, बस-बस!’

पत्र पढ़कर किशोरी ने रख दिया। उसके दुर्बल श्वास उत्तेजित हो उठे, वह फूट-फूटकर रोने लगी।

गरमी के दिन थे। दस ही बजे पवन में ताप हो चला था। श्रीचन्द्र ने आकर कहा, पंखा खींचने के लिए दासी मिल गयी है, यहीं रहेगी, केवल खाना-कपड़ा लेगी।

पीछे खड़ी दो करुण आँखें घूँघट में झाँक रही थीं।

श्रीचन्द्र चले गये। दासी आयी, पास आकर किशोरी की खाट पकड़कर बैठ गयी। किशोरी ने आँसू पोंछते हुए उसकी ओर देखा-यमुना तारा थी।

कंकाल – जयशंकर प्रसाद – 10

बरसात के प्रारम्भिक दिन थे। संध्या होने में विलंब था। दशाश्वमेध घाट वाली चुंगी-चौकी से सटा हुआ जो पीपल का वृक्ष है, उसके नीचे कितने ही मनुष्य कहलाने वाले प्राणियों का ठिकाना है। पुण्य-स्नान करने वाली बुढ़ियों की बाँस की डाली में से निकलकर चार-चार चावल सबों के फटे आँचल में पड़ जाते हैं, उनसे कितनों के विकृत अंग की पुष्टि होती है। काशी में बड़े-बड़े अनाथालय, बड़े-बड़े अन्नसत्र हैं और उनके संचालक स्वर्ग में जाने वाली आकाश-कुसुमों की सीढ़ी की कल्पना छाती फुलाकर करते हैं; पर इन्हें तो झुकी हुई कमर, झुर्रियों से भरे हाथों वाली रामनामी ओढ़े हुए अन्नपूर्णा की प्रतिमाएँ ही दो दाने दे देती हैं।

दो मोटी ईंटों पर खपड़ा रखकर इन्हीं दानों को भूनती हुई, कूड़े की ईंधन से कितनी क्षुधा-ज्वालाएँ निवृत्त होती हैं। यह एक दर्शनीय दृश्य है। सामने नाई अपने टाट बिछाकर बाल बनाने में लगे हैं, वे पीपल की जड़ से टिके हुए देवता के परमभक्त हैं, स्नान करके अपनी कमाई के फल-फूल उन्हीं पर चढ़ाते हैं। वे नग्न-भग्न देवता, भूखे-प्यासे जीवित देवता, क्या पूजा के अधिकारी नहीं उन्हीं में फटे कम्बल पर ईंट का तकिया लगाये विजय भी पड़ा है। अब उसके पहचाने जाने की तनिक भी संभावना नहीं। छाती तक हड्डियों का ढाँचा और पिंडलियों पर सूजन की चिकनाई, बालों के घनेपन में बड़ी-बड़ी आँखें और उन्हें बाँधे हुए एक चीथड़ा, इन सबों ने मिलकर विजय को-‘नये’ को-छिपा लिया था। वह ऊपर लटकती हुए पीपल की पत्तियों का हिलना देख रहा था। वह चुप था। दूसरे अपने सायंकाल के भोजन के लिए व्यग्र थे।

अँधेरा हो चला, रात्रि आयी, कितनों के विभव-विकास पर चाँदनी तानने और कितनों के अन्धकार में अपनी व्यंग्य की हँसी छिड़कने! विजय निष्चेष्ट था। उसका भालू उसके पास घूमकर आया, उसने दुलार किया। विजय के मुँह पर हँसी आयी, उसने धीरे से हाथ उठाकर उसके सिर पर रख पूछा, ‘भालू! तुम्हें कुछ खाने को मिला?’ भालू ने जँभाई लेकर जीभ से अपना मुँह पोंछा, फिर बगल में सो रहा। दोनों मित्र निश्चेष्ट सोने का अभिनय करने लगे।

एक भारी गठरी लिए दूसरा भिखमंगा आकर उसी जगह सोये हुए विजय को घूरने लगा। अन्धकार में उसकी तीव्रता देखी न गयी; पर वह बोल उठा, ‘क्यों बे बदमाश! मेरी जगह तूने लम्बी तानी है मारूँ डण्डे से, तेरी खोपड़ी फूट जाय!’

उसने डण्डा ताना ही था कि भालू झपट पड़ा। विजय ने विकृत कण्ठ से कहा, ‘भालू! जाने दो, यह मथुरा का थानेदार है, घूस लेने के अपराध में जेल काटकर आया है, यहाँ भी तुम्हारा चालान कर देगा तब?’

भालू लौट पड़ा और नया भिखमंगा एक बार चौंक उठा, ‘कौन है रे?’ कहता वहाँ से खिसक गया। विजय फिर निश्चिन्त हो गया। उसे नींद आने लगी। पैरों में सूजन थी, पीड़ा थी, अनाहार से वह दुर्बल था।

एक घण्टा बीता न होगा कि एक स्त्री आयी, उसने कहा, ‘भाई!’ ‘बहन!’ कहकर विजय उठ बैठा। उस स्त्री ने कुछ रोटियाँ उसके हाथ पर रख दीं। विजय खाने लगा। स्त्री ने कहा, ‘मेरी नौकरी लग गयी भाई! अब तुम भूखे न रहोगे।’

‘कहाँ बहन दूसरी रोटी समाप्त करते हुए विजय ने पूछा।

‘श्रीचन्द्र के यहाँ।’

विजय के हाथ से रोटी गिर पड़ी। उसने कहा, ‘तुमने आज मेरे साथ बड़ा अन्याय किया बहन!’

‘क्षमा करो भाई! तुम्हारी माँ मरण-सेज पर है, तुम उन्हें एक बार देखोगे?’

विजय चुप था। उसके सामने ब्रह्मांड घूमने लगा। उसने कहा, ‘माँ मरण-सेज पर! देखूँगा यमुना परन्तु तुमने…!’

‘मैं दुर्बल हूँ भाई! नारी-हृदय दुर्बल है, मैं अपने को रोक न सकी। मुझे नौकरी दूसरी जगह मिल सकती थी; पर तुम न जानते होगे कि श्रीचन्द्र का दत्तक पुत्र मोहन का मेरी कोख से जन्म हुआ है।’

‘क्या?’

‘हाँ भाई! तुम्हारी बहन यमुना का रक्त है, उसकी कथा फिर सुनाऊँगी।’

‘बहन! तुमने मुझे बचा लिया। अब मैं मोहन की रोटी सुख से खा सकूँगा।

पर माँ मरण-सेज पर… तो मैं चलूँ, कोई घुसने न दे तब!’

‘नहीं भाई! इस समय श्रीचन्द्र बहुत-सा दान-कर्म करा रहे हैं, हम तुम भी तो भिखमंगे ठहरे-चलो न!’

टीन के पात्र में जल पीकर विजय उठ खड़ा हुआ। दोनों चले। कितनी ही गलियाँ पार कर विजय और यमुना श्रीचन्द्र के घर पहुँचे। खुले दालान में किशोरी लिटाई गयी थी। दान के सामान बिखरे थे। श्रीचन्द्र मोहन को लेकर दूसरे कमरों में जाते हुए बोले, ‘यमुना! देखो, इसे भी कुछ दिला दो। मेरा चित्त घबरा रहा है, मोहन को लेकर इधर हूँ; बुला लेना।’

और दो-तीन दासियाँ थीं। यमुना ने उन्हें हटने का संकेत किया। उन सबने समझा-कोई महात्मा आशीर्वाद देने आया है, वे हट गयीं। विजय किशोरी के पैरों के पास बैठ गया। यमुना ने उसके कानों में कहा, ‘भैया आये हैं।’

किशोरी ने आँखें खोल दीं। विजय ने पैरों पर सिर रख दिया। किशोरी के अंग सब हिलते न थे। वह कुछ बोलना चाहती थी; पर आँखों से आँसू बहने लगे। विजय ने अपने मलिन हाथों से उन्हें पोंछा। एक बार किशोरी ने उसे देखा, आँखों ने अधिक बल देकर देखा; पर वे आँखें खुली रह गयीं। विजय फिर पैरों पर सिर रखकर उठ खड़ा हुआ। उसने मन-ही-मन कहा-मेरे इस दुःखमय शरीर को जन्म देने वाली दुखिया जननी! तुमसे उऋण नहीं हो सकता!

वह जब बाहर जा रहा था, यमुना रो पड़ी, सब दौड़ आये।

इस घटना को बहुत दिन बीत गये। विजय वहीं पड़ा रहता था। यमुना नित्य उसे रोटी दे जाती, वह निर्विकार भाव से उसे ग्रहण करता।

एक दिन प्रभात में जब उषा की लाली गंगा के वक्ष पर खिलने लगी थी, विजय ने आँखें खोलीं। धीरे से अपने पास से एक पत्र निकालकर वह पढ़ने लगा-‘वह विजय के समान ही उच्छृंखल है।… अपने दोनों पर तुम हँसोगी। किन्तु वे चाहे मेरे न हों, तब भी मुझे ऐसी शंका हो रही है कि तारा (तुम्हारी यमुना) की माता रामा से मेरा अवैध सम्बन्ध अपने को अलग नहीं रख सकता।’

पढ़ते-पढ़ते विजय की आँखों में आँसू आ गये। उसने पत्र फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तब भी न मिटा, उज्ज्वल अक्षरों से सूर्य की किरणों में आकाश-पट पर वह भयानक सत्य चमकने लगा।

उसकी धड़कन बढ़ गयी, वह तिलमिलाकर देखने लगा। अन्तिम साँस में कोई आँसू बहाने वाला न था, वह देखकर उसे प्रसन्नता हुई। उसने मन-ही-मन कहा-इस अन्तिम घड़ी में हे भगवान्! मैं तुमको स्मरण करता हूँ; आज तक कभी नहीं किया था, तब भी तुमने मुझे कितना बचाया, कितनी रक्षा की! हे मेरे देव! मेरा नमस्कार ग्रहण करो, इस नास्तिक का समर्पण स्वीकार करो! अनाथों के देव! तुम्हारी जय हो!

उसी क्षण उसके हृदय की गति बन्द हो गयी।

आठ बजे भारत-संघ का प्रदर्शन निकलने वाला था। दशाश्वमेध घाट पर उसका प्रचार होगा। सब जगह बड़ी भीड़ है। आगे स्त्रियों का दल था, जो बड़ा ही करुण संगीत गाता जा रहा था, पीछे कुछ स्वयंसेवियों की श्रेणी थी। स्त्रियों के आगे घण्टी और लतिका थीं। जहाँ से दशाश्वमेध के दो मार्ग अलग हुए हैं, वहाँ आकर वे लोग अलग-अलग होकर प्रचार करने लगे। घण्टी उस भिखमंगों वाले पीपल के पास खड़ी होकर बोल रही थी। उसके मुख पर शान्ति थी, वाणी में स्निग्धता थी। वह कह रही थी, ‘संसार को इतनी आवश्यकता किसी अन्य वस्तु की नहीं, जितनी सेवा की। देखो-कितने अनाथ यहाँ अन्न, वस्त्र विहीन, बिना किसी औषधि-उपचार के मर रहे हैं। हे पुण्यार्थियो! इन्हें ना भूलो, भगवान अभिनय करके इसमें पड़े हैं, वह तुम्हारी परीक्षा ले रहे हैं। इतने ईश्वर के मंदिर नष्ट हो रहे हैं धार्मिको। अब भी चेतो!’

सहसा उसकी वाणी बंद हो गयी। उसने स्थिर दृष्टि से एक पड़े हुए कंगले को देखा, वह बोल उठी, ‘देखो वह बेचारा अनाहार-से मर गया-सा मालूम पड़ता है। इसका संस्कार…’

‘हो जायेगा। हो जायेगा। आप इसकी चिन्ता न कीजिये, अपनी अमृतवाणी बरसाइये।’ जनता में कोलाहल होने चला; किन्तु वह आगे बढ़ी; भीड़ भी उधर ही जाने लगी। पीपल के पास सन्नाटा हो चला।

मोहन अपनी धाय के संग मेला देखने आया था। वह मान-मन्दिर वाली गली के कोने पर खड़ा था। उसने धाय से कहा, ‘दाई, मुझे वहाँ ले चलकर मेला दिखाओ, चलो, मेरी अच्छी दाई।’

यमुना ने कहा, ‘मेरे लाल! बड़ी भीड़ है, वहाँ क्या है जो देखोगे?’

मोहन ने कहा, ‘फिर हम तुमको पीटेंगे।’

‘तब तुम पाजी लड़के बन जाओगे, जो देखेगा वही कहेगा कि यह लड़का अपनी दाई को पीटता है।’ चुम्बन लेकर यमुना ने हँसते हुए कहा।

अकस्मात् उसकी दृष्टि विजय के शव पर पड़ी। वह घबराई कि क्या करे। पास ही श्रीचन्द्र भी टहल रहे थे। उसने मोहन का उनके पास पहुँचाते हुए हाथ जोड़कर कहा, ‘बाबूजी, मुझे दस रुपये दीजिये।’

श्रीचन्द्र ने कहा, ‘पगली क्या करेगी

वह दौड़ी हुई विजय के पास गयी। उसने खड़े होकर उसे देखा, फिर पास बैठकर देखा। दोनों आँखो से आँसू की धारा बह चली।

यमुना दूर खड़े श्रीचन्द्र के पास आयी। बोली, ‘बाबूजी, मेरे वेतन में से काट लेना, इसी समय दीजिये, मैं जन्म-भर यह ऋण भरूँगी।’

‘है क्या, मैं भी सुनूँ।’ श्रीचन्द्र ने कहा।

‘मेरा एक भाई था, यहीं भीख माँगता था बाबू। आज मरा पड़ा है, उसका संस्कार तो करा दूँ।’

वह रो रही थी। मोहन ने कहा, ‘दाई रोती है बाबूजी, और तुम दस ठो रुपये नहीं देते।’

श्रीचन्द्र ने दस का नोट निकालकर दिया। यमुना प्रसन्नता से बोली, ‘मेरी भी आयु लेकर जियो मेरे लाल।’

वह शव के पास चल पड़ी; परन्तु उस संस्कार के लिए कुछ लोग भी चाहिए, वे कहाँ से आवें। यमुना मुँह फिराकर चुपचाप खड़ी थी। घण्टी चारों और देखती हुई फिर वहीं आयी। उसके साथ चार स्वयंसेवक थे।

स्वंयसेवकों ने पूछा, ‘यही न देवीजी?’

‘हाँ।’ कहकर घण्टी ने देखा कि एक स्त्री घूँघट काढ़े, दस रुपये का नोट स्वयंसेवक के हाथ में दे रही है।

घण्टी ने कहा, ‘दान है पुण्यभागिनी का-ले लो, जाकर इससे सामान लाकर मृतक संस्कार करवा दो।’

स्वयंसेवक ने उसे ले लिया। वह स्त्री बैठी थी। इतने में मंगलदेव के साथ गाला भी आयी। मंगल ने कहा, ‘घण्टी! मैं तुम्हारी इस तत्परता से बड़ा प्रसन्न हुआ। अच्छा अब बोलो, अभी बहुत-सा काम बाकी है।’

‘मनुष्य के हिसाब-किताब में काम ही तो बाकी पड़े मिलते हैं।’ कहकर घण्टी सोचने लगी। फिर उस शव की दीन-दशा मंगल को संकेत से दिखलायी।

मंगल ने देखा एक स्त्री पास ही मलिन वसन में बैठी है। उसका घूँघट आँसुओं से भींग गया है और निराश्रय पड़ा है एक कंकाल!

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